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के आधार पर भी उनमें वर्ग भेद प्रारम्भ हो जाते हैं।
इस प्रकार सारा मानव-समाज धीरे-धीरे एक आन्तरिक असन्तुलन की आँच में तपने लगता है। मनुष्यों की आवश्यकताएँ बढ़ने लगती हैं। सन्तान के पालन का उत्तरदायित्व सिर पर आ जाने से, उनमें वस्तुओं के संग्रह की मनोवृत्ति प्रबल हो उठती है। परिग्रह एकत्र होते ही, सामाजिक अनुशासन को तोड़नेवाली अन्य असत् प्रवृत्तियाँ समाज में पनपने लगती हैं। जीवन के संघर्ष उत्तरोत्तर बढ़ने लगते हैं। धर्मनीति के स्थान पर 'राजनीति' की प्रतिष्ठा होने लगती है, समय का प्रभाव सतयुग के शान्त निर्द्वन्द वातावरण को धीरे-धीरे कलियुग की आकुलताओं और संघर्षों में परिवर्तित करने लगता है। ___ कलियुग के सारे अभिशाप चौथे काल में एक सीमा तक ही प्रसार पाते हैं। धर्मसम्मत समाज-व्यवस्था का अंकुश उन्हें एक मर्यादा के भीतर ही संचरित करता रहता है, परन्तु चौथे काल की समाप्ति पर, पंचम काल का प्रारम्भ होते ही वे सारो मर्यादाएँ भंग होने लगती हैं। यहीं से कलियुग का अनियन्त्रित ताण्डव धरती पर प्रारम्भ होता है। हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और अनावश्यक संग्रह की भावना, मनुष्य के विवेक को दूषित कर देती है। समाज की सुख-शान्ति विशृंखलित होकर अशान्ति और आकुलता में परिणत हो जाती है। छठे काल में स्थिति और भी भयावह हो जाती है। इसी समय अवर्षण, अतिवर्षण, दुभिक्ष, बैर, महामारी, युद्ध और धार्मिक तथा राजनैतिक विकृतियों का वातावरण, मानव-समाज को दैहिक, दैविक और भौतिक इन तीनों प्रकार के तापों से संक्लेशित करता है।
पाँचवाँ, छठा तथा पुनः छठा फिर पाँचवाँ ऐसे इक्कीस-इक्कीस सहस्र वर्ष की अवधिवाले ये चार दुखद कालखण्ड, चौरासी सहस्र वर्ष में व्यतीत होते हैं, तब पुनः चौथा काल प्रवर्तित होता है। यही कालचक्र की गति है।
अपवाद-काल
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी की ऐसी लम्बी शृंखला व्यतीत हो जाने पर, कभी-कभी एक अशुभ और मर्यादाविहीन अवसर्पिणी काल का आगमन होता है। इस काल में अनेक मर्यादाएँ स्वतः भंग हो जाती हैं। मर्यादाविहीन इस काल को 'हुण्डावसर्पिणी' काल कहा गया है। हमारा यह वर्तमान काल, ऐसे ही हुण्डावसर्पिणी का पाँचवाँ काल है। इसके केवल पच्चीस-सौ वर्ष व्यतीत हुए हैं। साढ़े अठारह सहस्र वर्ष अभी शेष हैं।
५८ / गोमटेश-गाथा