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१५. प्रतिमा बाहुबली की क्यों ?
आचार्य महाराज रूपकार को बाहुबली के व्यक्तित्व और जीवनवृत्त का विस्तृत परिचय कराना चाहते थे। रूपकार भी जिन लोकोत्तर महाभाग की पाषाण-प्रतिमा उकेरने जा रहा था, उनकी समस्त जीवनघटनाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उत्सुक था। कभी-कभी अपने प्रवचन के बीच में प्रसंग चलाकर महाराज जब बाहुबली का गुणानुवाद प्रारम्भ कर देते, तब रूपकार बड़ी सावधानी से उनका एक-एक शब्द ग्रहण करता था। ____ आचार्य महाराज की नियमित ध्यान-साधना में, तथा शिष्य समुदाय के पठन-पाठन में व्यवधान न हो, इस विचार से चामुण्डराय ने रूपकार को बाहबली-चरित्र सुनाने का कार्य, आचार्यश्री की आज्ञा से, अपने पर ले लिया। प्रतिदिन सन्ध्याकाल सामायिक के उपरान्त अपने पट-मण्डप में उनकी धर्म गोष्ठी होती थी। गोष्ठी में स्वयं चामुण्डराय अनेक पुराणों और कथाओं के आधार पर भगवान् आदिनाथ, चक्रवर्ती भरत और योगीश्वर बाहुबली के चरित्र का वर्णन करते थे। रूपकार से चर्चा के समय भी वे प्रायः उन्हीं महायोगी का प्रसंग चलाते रहते थे।
बाहुबली के असामान्य जीवन प्रसंग मेरे लिए भी सर्वथा नवीन और आकर्षक थे। जबसे चामुण्डराय मेरे अतिथि हुए, तभी से यह नाम मैंने सुना था। यथार्थ तो यह है पथिक, कि जब मैंने सुना कि विन्ध्यगिरि पर बाहबली की प्रतिमा उत्कीर्ण की जायगी, तब से ही यह प्रश्न बारबार मेरे भीतर भी टकराता था कि बाहुबली की प्रतिमा बनाने का औचित्य क्या है ? क्या विशेषता थी उनके जीवन में कि पूजन अर्चना के के लिए तीर्थंकरों के ही समकक्ष, उनकी प्रतिमा बनाकर स्थापित की जावे।