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१२. शिल्पकार
शिल्पी को लेकर प्रातः ही जिनदेवन आचार्यश्री के पास उपस्थित हो गए। मूर्ति-शास्त्र का ज्ञाता, वह एक अनुभवी प्रतिभासम्पन्न कलाकार था। प्रतिमा-निर्माण उसका पैतृक व्यवसाय था अतः इस कला की अनेक विशेषताएँ उसे परम्परा से प्राप्त हुई थीं। अपनी कला-साधना में व्यवसाय के ही भय से आजीवन अविवाहित रहने का उस शिल्पी का संकल्प था, अतः एक वृद्धा जननी तक ही उसका परिकर या कुटुम्ब था। उसकी कला को पर्याप्त ख्याति मिल चुकी थी और स्वयं उसे गंग राज्य का राज्यशिल्पी होने की गरिमा प्राप्त थी।
इतना विशिष्ट कलाकार होकर भी वह शिल्पी, नाम और ख्याति के प्रति अत्यन्त उदासीन था। तुमने देखा होगा कि इतनी विशाल प्रतिमा के उस कुशल तक्षक ने, इस पर्वत पर अपने नाम गोत्र के परिचय का, कोई संकेत तक नहीं छोड़ा। मुझे ऐसा लगता है प्रवासी, कि अपने समय का इतना प्रसिद्ध और यशस्वी वह कलाकार, इस अद्वितीय प्रतिमा के निर्माण के सन्दर्भ में, संकल्पपूर्वक, तुम लोगों के लिए अनाम ही रहना चाहता था। आज यही सोचकर उस महान् कलाकार का नाम प्रकट करके, मैं उसका अपराधी बनना नहीं चाहता।
मुझे ज्ञात है कि तुम्हारा इतिहास का रथ, नाम रूप का आधार लिए बिना, एक डग भी चल नहीं पाता। तब चलो इतने के लिए उस शिल्पी का नाम रख लेते हैं 'रूपकार'। यह शब्द अब उसका नाम भी होगा और परिचय भी। संज्ञा भी और सर्वनाम भी।
नेमिचन्द्राचार्य महाराज ने अपनी कल्पना के आधार से, इस महान् अनुष्ठान के विषय में, कल से आज तक बहुत चिन्तन किया था। उन्होंने एक स्वच्छ काष्ठ-फलक पर, प्रस्तावित मूर्ति की सानुपातिक अनुकृति