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६. मेरे महान् अतिथि : परम तपस्वी आचार्य नेमिचन्द्र
वर्षा ऋतु अभी-अभी व्यतीत हुई थी । कुछ ही दिनों पूर्व भगवान् महावीर का निर्वाण - महोत्सव मनाकर साधु-यतियों ने चातुर्मासिक प्रतिक्रमणपूर्वक वर्षायोग का समापन किया था । सहसा एक दिन प्रातः काल परिवेश का वातावरण एक अनौखी हलचल से व्याप्त हो उठा । आसपास के नगरों-ग्रामों से श्रावक समुदाय धीरे-धीरे आकर यहाँ एकत्र हो रहा था । उस समय यहाँ चन्द्रगुप्त बसदि अपने इस रूप में अवस्थित हो चुकी थी । उसके समीप ही चन्द्रप्रभ बसदि का निर्माण हो चुका था। शासनसेवक ब्रह्मदेव के लिए 'इरुवे ब्रह्मदेव' बसदि भी स्थापित हो चुकी थी । गंगवंशीय प्रतापी नृपति मारसिंह की सल्लेखना की स्मृति स्वरूप, यहाँ 'कूगे ब्रह्मदेव' स्तम्भ की स्थापना को तो बहुत थोड़ा ही काल हुआ था ।
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आज प्रातः ही दोनों जिनालयों का मार्जन और उनकी परिकर भूमि का शोधन हुआ । पत्रमालाओं और पुष्पगुच्छकों से उनकी सज्जा कराई गयी । ब्रह्मदेव बसदि से उठता हुआ सुगंधित धूम, चहुँ ओर फैल - फैलकर वातावरण में, सुरभि और पवित्रता का प्रसार कर रहा था । 'कूगे ब्रह्मदेव' स्तम्भ को ताड़पत्रों और नारिकेल की मालाओं से सज्जित किया गया था । इस स्तम्भ की पीठिका पर अंकित, आठों दिशाओं को
जित करती, आठों गजराज आकृतियाँ, चित्र-विचित्र मणि - मालाओं और कौषेय वस्त्रों से सजाई गई थीं । इस स्तम्भ की वे गजमूर्तियाँ अब नष्ट हो चुकी हैं। उस दिन मेरा पूरा ही अस्तित्व वन्दनवारों और पुष्पतोरणों से गँथ दिया गया था ।
लोगों में अद्भुत उत्साह व्याप्त था। उनमें चर्चा थी कि लोकविख्यात श्रुतज्ञ, श्री नेमिचन्द्राचार्य और उनके शिष्य वीरमार्तण्ड चामुण्डराय आज