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बिम्ब, जिनालय, मानस्तम्भ, गुफा, चरण-चिह्न आदि, जितने भी शिल्प प्रतीक तुम यहाँ देख रहे हो, भले ही उनकी स्थापना, प्रतिष्ठा काल उन पर अंकित हो, परन्तु वर्ष तिथि - मास की यह गणना, केवल उनके वर्तमान रूप की जन्मपत्री है । वास्तव में परम्परा द्वारा, उनका अस्तित्व, मुझे तुम्हारे दीर्घ अतीत से जोड़ता है । इधर मेरे ही समक्ष, उस इन्द्रगिरि पर, गोमटेश बाहुबली की इस नयनाभिराम प्रतिमा का निर्माण जबसे हुआ, तबसे तो मेरा सारा अस्तित्व ही गौरवान्वित हो उठा है । फिर तो एक वन्दनीय देवायतन की जो गरिमा मुझे प्राप्त हुई, वह अनुम और अद्वितीय ही है ।
शास्त्र
शास्त्र की बात बहुत प्राचीन नहीं है । साधु-मण्डली में द्वादशांग का पाठ तो इस वातावरण में अनेक बार गूंजा है । यहीं बैठकर अनेक आचार्यों ने जिनवाणी का पावन प्रसाद, अपने शिष्यों को बार-बार वितरित किया है, पर लिपिबद्ध रूप में शास्त्रों का दर्शन मुझे अभी थोड़ी ही शताब्दियों पूर्व हुआ ।
इतिहास ने तुम्हें बताया होगा कि शास्त्र लिखने की पद्धति इस देश में बहुत प्राचीन नहीं है । तीर्थंकर अर्हन्तों का दिव्य उपदेश, उनके प्रवक्ता गणधरों के द्वारा, भाषा रूप में नियोजित करके प्रवचन और प्रश्नोत्तर के माध्यम से ही, दूसरे मुनियों, आचार्यों तक पहुँचता था । वे आचार्य वह समस्त ज्ञान अपने शिष्यों को इसी श्रुत - परम्परा से प्रदान कर जाते थे । एक से दूसरे आचार्यों तक पहुँचाता हुआ तीर्थंकर महावीर का पावन उपदेश, उनके उपरान्त छहसौ वर्षों तक, इसी प्रकार अलिखित रूप में ही प्रचारित होता रहा । इन छहसौ वर्षों में उस द्वादशांग वाणी का ह्रास भी हुआ और आगे उसकी परम्परा विच्छिन्न होने की आशंका भी होने लगी ।
जैन संस्कृति के उस शेष बचे पवित्र वचनामृत को तुम्हारी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित करने के विचार से, आज से लगभग उन्नीससौ वर्ष पूर्व, आचार्य धरसेन महाराज ने वह आगम ज्ञान लिपिबद्ध कराने का संकल्प किया। अपने योग्य शिष्यों - पुष्पदन्त और भूतबलि को — उन्होंने वह ज्ञान प्रदान किया और प्रेरणा देकर उन्हीं से उसे लिपिबद्ध कराया । वह महत्वपूर्ण ग्रन्थ 'षट्खण्डागम धवल सिद्धान्त' कहलाया ।
जैन आगम के लेखन का इस धरती पर यही प्रथम प्रयास था । यहीं, मेरे ही आस-पास इसी दक्षिणावर्त में यह प्रयास प्रारम्भ हुआ । फिर तो
गोमटेश - गाथा / S