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उस मूर्च्छाजाल को छिन्न-भिन्न कर देने के लिए, कहीं न कहीं, मेरे जैसे किसी न किसी 'जड़' को ही मुखर होना पड़ता है। जड़ की यही मुखरता तुम्हारा इतिहास है । तुम्हारी दार्शनिक मान्यता भी तो यही है कि आत्मा अरस है, अगन्ध है, अरूप और अशब्द है । शब्द जड़ हैं, वह जड़ की ही पर्याय है । फिर जो मेरी ही परिणति रूप है, उस मेरी मुखरता में तुम्हारे लिए विस्मय की क्या बात है ! शान्त होकर चार क्षण बैठो । कुछ अपनी कहो, कुछ मेरी सुनो !
नहीं, अपनी जिज्ञासा को प्रश्न का पहिनावा प्रदान करने का प्रयत्न मत करो। मेरे लिए यह नितान्त अनावश्यक है । तुम्हारी प्रश्नजन्मा दृष्टि ने मुझे सब कुछ बता दिया है । मैं तुम्हारी जिज्ञासा की उत्कटता का अनुभव कर रहा हूँ । तुम्हारे सारे अनकहे प्रश्न मुझे बेध रहे हैं । उन्हें अनकहा ही रहने दो ।
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सोच रहा हूँ कहाँ से प्रारम्भ करूँ । मेरे स्मृतिकोष में सुदूर अतीत से आज तक का सारा घटनाचक्र सुरक्षित है । काल के माप अवश्य मेरे और तुम्हारे पृथक्-पृथक् हैं । जो मेरे लिए अतीत है, वह तो तुम्हारे लिए कल्पनातीत है । तुम्हारे लिए जो घटनाएँ बहुत प्राचीन हैं, वे मुझे लगता है - अभी कल ही घटी हैं । इसीलिए प्रायः सन् संवत्, तिथि - मास का लेखा-जोखा मेरे पास नहीं है । मुझे ऐसी गणना अनन्त को सीमाबद्ध करने का बाल प्रयास - सा लगता है । तब चलो उसी निकट अतीत की चर्चा करें, उसी छोटे से कालखण्ड का सिंहावलोकन करें जिसे तुम 'इतिहास काल' कहते हो ।
४ / गोमटेश - गाथा