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४७. महामात्य का आत्म-निवेदन
आचार्यश्री का प्रवचन समाप्त होने पर महाकवि ने महामात्य से अपना वक्तव्य प्रस्तुत करने का अनुरोध किया। चामुण्डराय ने अपने स्थान से उठकर पहले आचार्य अजितसेन की, फिर नेमिचन्द्राचार्य की चरण वन्दना करके, गंगराज का अभिवादन किया और तब अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया___ 'आचार्यश्री की हमारे ऊपर महती अनुकम्पा है। हमारे जीवन में आचरण में जो कुछ सम्यक् और सद् है, वह उन्हीं का दिया हुआ है। अपने स्नेह भाव के कारण भगवान् बाहुबली के साथ महाराज ने हमारा नाम जोड़ दिया है। अपने अनमोल ग्रन्थ का नाम भी 'गोम्मटसार' घोषित कर दिया है। अब हमें सावधान रहना ही होगा । इस नाम के साथ कोई क्षुद्रता न जुड़ पावे यह हमारा उत्तरादायित्व होगा। महाराज की यह भावना हमारे लिए कल्याण-विधायिनी होगी।'
'आज तक हम अपनी जन्मभूमि का ऋण चुकाते रहे, अब हमें जननी का ऋण चुकाने का अवसर मिला है। मातेश्वरी की भक्ति से ही भगवान् यहाँ प्रकट हुए हैं। जीवन का शेष काल उन्हीं की आज्ञानुसार, उनके साथ यहाँ रहकर बाहुबली के चरणों की सेवा में व्यतीत करने का हम प्रयत्न करेंगे। आज से 'शस्त्र-संन्यास' का हम संकल्प करते हैं, और आचार्यश्री से प्रार्थना करते हैं कि इस निर्बल को सहारा देकर, संसार के कषायचक्र से इसका उद्धार करके, अनन्त सुख के मार्ग पर लगाने की कृपा करते रहें।'
'हमने यह अनुभव किया है कि इस संसार में हम सभी, कषायों के गज पर आरूढ़ होकर घूमते हैं। जो पुण्य-पुरुष इस गज से उतरकर समता की भूमि पर आ जाते हैं, उनका जीवन सार्थक हो जाता है।