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लिए भगवान् की मूर्ति का निर्माण हुआ । प्रथम कलश उनके हाथों से ही अर्पित होता तब यह व्यवधान नहीं होता ।'
किसी चतुर ने अपना निराला ही मत घोषित किया
'अरे, जानते नहीं ये बाहुबली हैं, बाहुबली । दीक्षा लेने के उपरान्त केवलज्ञान के लिए, पूरे बारह मास तक खड़े रहे थे। अब अभिषेक के लिए कम से कम बारह दिन तक तो अवश्य प्रतीक्षा करायेंगे। देखना फिर अपने आप यह अभिषेक पूरा होगा ।'
एक सज्जन ने अपने साथी के कान में कहा
'ये जो वामियाँ बनायी हैं भगवान् के चरणों में, इनके नाग-नागिनें क्षुधार्थ होंगे। दुग्ध तो उनका प्रिय आहार है । वे ही सारा दुग्ध-पान कर जाते हैं। कलश बन्द नहीं करना चाहिए । नाग समूह तृप्त होगा तब स्वयं दुग्ध की धारा नीचे तक बह जायेगी ।'
आचार्यश्री ने इस बीच पण्डिताचार्य और जिनदेवन के साथ मन्त्रणा की । उन्हें आशंका थी कि अवश्य यहाँ किसी के अन्तर में कोई शूल कसक गया है। उसे निर्मूल करने के लिए ही किसी कौतुकी शक्ति ने यह व्यवधान उपस्थित किया है । इस समस्या का समाधान भी यहीं, हमारे ही आस-पास होना चाहिए। देखना चाहिए इस समुदाय में कहीं कोई दुखी, दरिद्री, तो शेष नहीं है ।
नम्रतापूर्वक महामात्य ने आचार्यश्री से निवेदन किया
'महाराज ! तीन दिन पूर्व से दानशाला के द्वार आठों प्रहर खुले हैं । द्वार पर आये प्रत्येक याचक की अतिथि के समान अभ्यर्थना होती है, और उसकी हर आकांक्षा पूरी की जाती है । यही आदेश है भाण्डारिक को। पीड़ित और रोगी ढूँढ़- ढूँढ़कर औषधालय में लाये जा रहे हैं । उनकी चिकित्सा और सेवा हो रही है । कोई बहुरूपिया भले ही दुखी दरिद्री के वेष में अपनी कला दिखाता हुआ यहाँ मिल जाय, अन्यथा कोसों दूर तक दरिद्रता और पीड़ा, ढूँढ़ने पर भी, मिलना नहीं चाहिए इस मेले में । '
'महामात्य का कथन यथार्थ है, पर कौन जानता है व्यवधान का वह कारण, किस रूप में हमें मिल जाय । समुदाय का संशोधन तो करना ही चाहिए ।' यह पण्डिताचार्य का मत था ।
जिनदेवन और सरस्वती को साथ लेकर पण्डिताचार्य अब स्वतः अपने समाधान की शोध में प्रवृत्त हो गये । उस विशाल जन समुदाय में अलग-अलग दिशाओं में घूमते हुए उनकी आँखें, किसी असन्तुष्ट अपरिचित को ढूँढ़ रही थीं। कौन है वह महाभाग, जिसके योगदान के बिना अधूरा है यह अनुष्ठान ? कौन है वह भक्त, जिसकी शक्ति का आकांक्षी
१८२ / गोमटेश - गाथा