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अपराह्न के समय अत्तिमब्बे का आगमन हुआ था। उधर नीचे, उस स्थल पर, जहाँ तुम लोगों ने महावीर निर्वाण महोत्सव की स्मृति में अब धर्मचक्र-स्तम्भ बनाकर वाटिका लगा दी है, वहीं नगर का स्वागत द्वार था। वहीं, द्वार पर सपरिवार आकर महामात्य ने उस महिलारत्न का स्वागत किया। सम्मानपूर्वक अत्तिमब्बे ने उन्हें तथा अजितादेवी को प्रणाम किया। ___ उस समय का दृश्य देखने योग्य था प्रवासी ! मातेश्वरी अत्तिमब्बे के स्वागत के लिए आगे बढ़ रही थीं। वय में बड़ा अन्तर था, परन्तु दोनों श्वेतवसना, दोनों धवलकेशिनी। तन-मन से दोनों ही पावन और पवित्र । शुभ्रता उनके व्यक्तित्व में भर नहीं, कृतित्व में भी व्याप्त होकर चमक रही थी।
बीस वर्ष पूर्व काललदेवी ने एक दिन दुलहन बनी अत्तिमब्बे को देखा था। अनगिनते आशीष दिये थे। मरकत-मणि की पार्श्वनाथ प्रतिमा का अनमोल उपहार दिया था। तब सुन्दर सुकन्या अत्तिमब्बे, गुड़िया-सी लगती थी। थोड़े ही समय में असमय वैधव्य के ताप से तप्त उसकी कंचन देह, अब श्यामल और जर्जर हो गयी थी। सूक्ष्म आहार और अधिक परिश्रम ने उसे निष्प्राण-सा कर दिया था। देखते ही काललदेवी अवाक रह गयीं। उन्हें लगा जैसे किसी पुराण के प्रारंभिक कथानक को पढ़ते पढ़ते, सैकड़ों पत्र अनपढ़े ही पलट गये हों और असमय में उपसंहार सामने आ गया हो।
'कैसी है अत्तिमब्बे, यह क्या हो गया है तुझे?'
स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए मातेश्वरी ने पूछा। मुझे लगा जैसे शक्ति ने साधना के सिर पर हाथ रख दिया हो।
'अच्छी हूँ मामी, तुमने तो दीर्घकाल से खबर ही नहीं ली।'
मीठा उपालम्भ देती हुई अत्तिमब्बे ने मातेश्वरी के चरण-स्पर्श कर लिये, जैसे कर्मठता ने प्रेरणा के पाँव छ लिये हों।
बाहों में भरकर मातेश्वरी ने उसे उठाया और छाती से लगा लिया, जैसे श्रद्धा और भक्ति का ही मिलाप हो रहा हो।
दो क्षण के लिए दोनों के मन अतीत की स्मतियों में खो गये। आँखों की आद्रता ओस-सी टपक पड़ी। कण्ठ अवरुद्ध हो गये। शीघ्र ही अपने आपको संभाल कर अत्तिमब्बे ने ही कहा___ 'मामी इस कलियुग में भी समवसरण धरती पर उतार लिया। पाषाण में कहाँ से इतनी कोमलता भर दी? कई कोस से दर्शन करती आयी हूँ गोमटेश्वर के । यह तो लोकोत्तर काम किया है आपने।'
१७४ / गोमटेश-गाथा