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भगवान् के दिव्य रूप का पान करती रही और वे भक्ति में तल्लीन बेसुध - सी तब तक नाचती रहीं, जब तक उनका जराग्रस्त शरीर, शिथिल होकर स्वतः भगवान् के चरणों में गिर नहीं गया । सरस्वती ने जल सिंचन करके और बयार संचार करके उन्हें प्रकृतिस्थ किया ।
मातेश्वरी का यह उत्साह देखकर अजितादेवी चकित हो रही थीं । काललदेवी के नृत्य का अभ्यास उन्हें ज्ञात था । उन्हें भली-भाँति स्मरण था तीस वर्ष पूर्व, जब नववधू के रूप में उन्होंने इस घर में प्रवेश किया था, कैसी पागल सी होकर नाची थीं मातेश्वरी । परन्तु तब उनका शरीर बहुत स्वस्थ और सशक्त था । अभी दस वर्ष पूर्व जिनदेवन के व्याह पर, इसी सरस्वती के गृहप्रवेश के समय, बहुत हठ करने पर भी मातेश्वरी ने उनका साथ तक नहीं दिया था। कहा था
'इस वृद्धापन में बिना सहारे चल-फिर लेती हूँ, यही क्या बहुत नहीं है ? नाचने कूदने की शक्ति अब कहाँ ?'
अजितादेवी विचार कर रही थीं- दस वर्ष पूर्व जो वार्धक्य से अशक्त थीं, उन्हीं मातेश्वरी के चरण आज कावेरी की लहरों जैसी चंचलता से थिरक रहे हैं । कितनी शक्ति होती है भक्ति के आवेग में !
थोड़ी देर तक सौरभ के साथ छोटे बालक-बालिकाएँ आरती करते रहे । अजितादेवी स्वयं उन्हें हाथ पकड़कर आरती कराती रहीं । विशालकाय भगवान् की आरती में छोटे-छोटे भक्तों की अटपटी थिरकन देख-देखकर वे बार-बार अपना भाग्य सराहती थीं। तभी जिनदेवन के इंगित पर सौरभ अपने रूपकार मामा को, समुदाय में से ढूँढ़कर खींच लाया । उस आत्मकेन्द्रित कलाकार को एक बार सन्नद्ध करने में प्रयास करना पड़ा, पर शीघ्र ही उपस्थितों ने देखा कि सिर पर दीप - कलश, कन्धों पर ज्वलित दीप और हाथों में दीप- आरती, ऐसे पाँच ज्वलित दीपों को एक साथ संयोजित करते हुए, अनेक भाव भंगिमाओं के साथ, रूपकार ने जो आरती नृत्य वहाँ प्रस्तुत किया, वह अद्भुत ही था । आरती लिये हुए सौरभ को कन्धे पर बिठाकर, और हाथों में चंवर लेकर भी रूपकार घड़ी भर तक मगन मन नाचता रहा ।
सरस्वती नृत्य और संगीत दोनों में पारंगत थी । दीपकों की झिलमिल ज्योति से आलोकित, भगवान् के चरणों की दिव्य छवि का आकर्षण, और मृदंगम की थाप का आमंत्रण, उसे बार-बार झकझोर रहे थे । बैठे ही बैठे उसका तन-मन थिरक रहा था, परन्तु अपरिचित समुदाय के समक्ष, सहज लज्जा और संकोच, अब तक उसे रोके रहे । अब पति के प्रच्छन्न अनुरोध ने, रूपकार के अनुनय ने, सौरभ की १६६ / गोमटेश - गाथा