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वह निर्विकार और निर्दोष शिशु फिर अपने में मगन हो गया ।
मनचाहा खिलौना पाकर बालक जिस प्रकार हर ओर से एकाधिकार पूर्वक उसे ग्रहण कर लेना चाहता है, उसी प्रकार सौरभ, आज गोमटेश्वर को प्राप्त कर लेना चाहता था । कभी जनसमूह के साथ उछलता कूदता वह भगवान् की परिक्रमा कर आता, कभी दौड़कर अपनी छोटी-छोटी कोमल बाहों में, गोमटेश के चरणों का अंगूठा बाँध लाने का उपक्रम करता । कभी भगवान् के दोनों चरणों के बीच खड़ा होकर वह उनकी जय-जयकार करने लगता । किसी भी स्थिति में आज सौरभ का मन संतुष्ट नहीं हो पा रहा था ।
सूर्यताप में अतिशय उछलकूद के कारण पौत्र का सुकुमार मुख स्वेदसिक्त हो उठा देखकर अजितादेवी ने उसे अंक में लेकर, स्वेदरहित किया और स्नेहपूर्वक पूछा
'बोल क्या चाहिए तुझे ?'
‘भगवान् को अपने घर ले चलो न माँ जी ।' बालक ने सहज भाव से अपनी भोली आकांक्षा पितामही पर प्रकट कर दी । आँचल का छोर मुँह से दबाकर बड़ी कठिनाई से अजितादेवी अपनी हँसी पर नियन्त्रण कर पायीं । तत्काल उन्होंने लाड़ले पौत्र को अंक से उतारकर, प्यार से पति की ओर धकेलते हुए, आश्वासन दिया
'जा अपने बाबा से बोल । वही तेरा लाड़ पूरा करेंगे ।'
सौरभ दो पग तो महामात्य की ओर बढ़ा, पर बाबा का लक्ष्य अपनी ओर न पाकर समझ गया कि हठ पूरी कराने का अवसर नहीं है । ठिठक कर उसने मन ही मन संकल्प किया कि सन्ध्याकाल जब बाबा उसे कहानी सुनाने बैठेंगे, तभी उनसे कहकर अपना कार्य करा लेना होगा । बाबा यदि नहीं सुनेंगे तब वह रूपकार मामा से कहेगा । मामा अवश्य उसके लिए ऐसे ही एक और भगवान् बना देंगे। वह फिर पलटकर अपनो क्रीड़ा में व्यस्त हो गया । मन के लड्डू सौरभ को जो तृप्ति दे रहे थे, उसकी प्रतिछवि उसके नेत्रों की चमक में स्पष्ट होकर झलक रही थी ।
मुदितमन अजितादेवी मातेश्वरी से, और अपनी पुत्रवधू से उनके लाड़ले की अनोखी अभिलाषा का बखान कर रही थीं ।
एक प्रौढ़ महिला समूह में से निकल कर बाहुबली के चरणों के समीप ही बैठ गयी । अपनी छोटी-सी करण्डिका में से अक्षत, पुष्प और फल निकालकर वह पूजन आरती का आयोजन करने लगी । सरस्वती ने लक्ष्य किया कि उस महिला ने आरती के प्रज्वलित दीप से फूल की
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१६० / गोमटेश - गाथा