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वाणी, रूपकार को नया बल, नया साहस दे गयी। वह चुपचाप उठा, जननी के चरणों में माथा रखा और एक नवीन संकल्प से भरा मुझ चन्द्रगिरि की ओर चल पड़ा ।
चन्द्रप्रभु बसदि की वन्दना करते समय आज न जाने कौन-सा स्रोत पढ़ता रहा रूपकार, कि पूरे समय उसकी आँखों से अश्रुधार झरती रही। आचार्य महाराज उस समय ब्रह्मदेव स्तम्भ के पास, धूप में बैठे अध्ययन कर रहे थे । वह दूर से ही उन्हें नमोस्तु करके विन्ध्यगिरि की ओर चला गया । महाराज के सामने जाने का साहस वह नहीं जुटा
पाया ।
रूपकार यथासमयं विन्ध्यगिरि पर गया अवश्य, परन्तु छैनी - टाँकी का स्पर्श आज उसने नहीं किया । अपनी क्षमता पर से उसका विश्वास sta गया था । वह आशंकित था कि ऐसी मनस्थिति में वह यत्न भी करेगा तो भी, उस रूप का सृजन वह कर नहीं पायेगा । न जाने उसके किस उपकरण का कौन-सा अवांछित स्पर्श, उसकी हथौटी का कौन-सा असंतुलित आघात, आज कहाँ उस मनोहारी छवि में विद्रूपता का कलंक उकेर देगा । अनमने भाव से वह इधर-उधर डोलता रहा । जिनदेवन और पण्डिताचार्य की दृष्टि से भी प्रयासपूर्वक उसने अपने आपको बचा लिया ।
तीसरे प्रहर सरस्वती पर्वत पर आयी । रूपकार ने उसके साथ सौरभ को देखते ही टेर लिया। उसे बहलाने का बहाना लेकर वह एक ओर ओट में जाकर बैठ गया । सरस्वती और जिनदेवन ने रूपकार की ग्लानि ताड़ ली और हठात् उससे बात करने का निर्णय किया । क्षणेक में घूमते हुए वे उसके शैलाश्रय के द्वार पर जा पहुँचे । जैसे किसी ने चोरी करते देख लिया हो, ऐसे चौंककर, लज्जित-सा होकर, नमित दृष्टि रूपकार ने दोनों का अभिवादन किया ।
'क्या हुआ वीरन ? स्वास्थ्य तो ठीक है न ? अम्मा ने बताया, भोजन नहीं किया तूने ?' सरस्वती ने भूमिका बाँधी । 'कुछ तो नहीं दीदी ! कितना भी खाऊँ क्या अम्मा को कभी सन्तोष दे पाऊँगा ! एक दिन नहीं भी खाया तो क्या ।'
कल
'नहीं भैया ! मैं तो आयी ही आज इसीलिए हूँ । चल तेरा भोजन रखा है ।'
'एक काँटा लगा है दीदी ? उसे निकालने का उपाय हो जाय तभी अब भोजन कर सकूँगा ।'
कहते-कहते गला रुँधने लगा रूपकार का । सरस्वती ने अपनत्व के १३४ / गोमटेश - गाथा