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पहली बार गुरु-दर्शन के बिना ही वह विन्ध्यगिरि की ओर बढ़ चला। उसकी गति की अत्यन्त आतुरता चुपचाप मुझे बहुत कुछ बता गयी। मैं आशंका से सिहर उठा।
कार्य प्रारम्भ हुआ। ऐसा लगता था कि आज रूपकार अपने आपे में नहीं है । वह आज किसी भी प्रकार, कम से कम समय में, अधिक से अधिक पाषाणकण, उस शिला में से झरा लेना चाहता था। तक्षण की योजना के अनुसार वह छोटे, सूक्ष्म उपकरणों की ओर हाथ बढ़ाकर भी, अनजाने ही बड़े और स्थल उपकरण उठा लेता। उपांगों, प्रत्यांगों को उत्कीर्ण करने के लिए उठे उसके हाथ, अनजाने ही प्रतिमा के स्थूल अंगों को ओर बढ़ जाते, जहाँ से अभी बहुत पाषाण कोर कर गिराने की सम्भावना थी। ___ आज रूपकार के मन में स्थिरता नहीं थी। तक्षण में उसकी सहज एकाग्रता आज उससे कोसों दूर थी। उसके मन में तरह-तरह की आशंकाएँ प्रति पल उठ रही थीं। उसे लगता था कि पुष्कल स्वर्णसंचय के इस अपूर्व अवसर से लाभ उठाकर, उसे शीघ्र से शीघ्र अपनी कामना की पूर्ति कर लेना चाहिए। वह आशंका करता, कहीं ऐसा न हो कि महामात्य अधिक व्ययसाध्य मानकर, बीच में ही यह कार्य रोक दें। कहीं ऐसा न हो कि कोई दूसरा शिल्पी अल्प पारिश्रमिक स्वीकार करके, यह अनुबन्ध उससे छीन ले जाय। ___ एक बार अपने आपको झकझोर कर उसने अपनी मूर्खता को धिक्कारा भी। मन को भरोसा भी दिलाया कि-महामात्य के पास स्वर्ण का अट भण्डार है। प्रतिमा के निर्माण के लिए उनकी गहरी लगन है। यह काम बन्द होने की आशंका ही निर्मूल है। इस अधूरे काम को हाथों में लेकर पूरा कर सके, ऐसा दूसरा कलाकार है भी कहाँ ? काम का समापन तो उसके ही हाथों होगा। झरे हुए पाषाण की तौल भर स्वर्ण भी उसे मिलेगा ही। फिर इतनी आतुरता क्या उसे शोभा देती है ? कई बार रूपकार ने अपने मन को समझाया, परन्तु उसका यह विवेक दो क्षण भी टिका नहीं रह सका। मन के किसी कोने से इन सारे
आश्वासनों के ऊपर एक शंका उठती___'यह ठीक है कि महामात्य अक्षय स्वर्णकोष के स्वामी हैं, वे काम बन्द नहीं करेंगे। यह भी निश्चित है कि अधुरा काम उसके हाथ से छीनने की अनीति कोई नहीं करेगा। पर, यह तो हो सकता है कि किसी क्षण उसका अपना ही शरीर धोखा दे जाय। क्या यह सम्भव नहीं कि कल पक्षाघात से उसका हाथ ही स्तब्ध हो जाय। किसी दुर्घटना से
१२८ / गोमटेश-गाथा