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विन्ध्यगिरि पर पधारते थे। प्रायः पूरा ही मुनिसंघ यहाँ से कटक की
ओर आहार के लिए निकलता और आहार के उपरान्त विन्ध्यगिरि पर ही चला जाता। मध्याह्न की सामायिक उन्हीं शिलाखण्डों, और पर्वतशिखरों पर करके, तीसरे पहर ही फिर इस चन्द्रगिरि पर उनका आगमन होता। . पण्डिताचार्य और जिनदेवन प्रायः पूरी कार्यावधि तक पर्वत पर ही रहते थे। समय मिलते ही सरस्वती भी वहाँ पहुँच जाती। तीनों मिलकर बाहुबली बिम्ब के अनुपात, सौष्ठव और दर्शनीयता का निरीक्षण और परीक्षण करते रहते। रूपकार की जननी पर्वत की नियमित यात्री थी। प्रतिमा के गुण दोषों और तक्षण की प्रगति का सूक्ष्मतम लेखा-जोखा वृद्धा की दृष्टि में रहता था। निर्माण का कार्य निर्दोष और संतोषप्रद ढंग से चल रहा था। पाषाण में प्राण फूंकने की यह दीर्घकालीन साधना, अपनी गति से गतिमान थी।
एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रूपकार ने एक विचित्र स्वप्न देखा। स्वप्न में उसकी कुटी सहसा स्वर्ण-कुटी में परिवर्तित हो गयी। सीढ़ी से लेकर छानी तक सब कुछ स्वर्णमय हो गया। द्वार, कपाट, वातायन, सब कुछ। उसने देखा कि वह स्वयं एक स्वर्ण-पीठिका पर बैठा हुआ स्वर्ण-थाल में भोजन कर रहा है। अम्मा उसे ममतापूर्वक इडली साँभर परोसने आयी। थाल में इडली के आने के पूर्व ही एका-एक रूपकार की नींद टूट गई और उसका स्वप्न खण्डित हो गया।
स्वप्न भंग हो तो गया, पर वह स्वणिम कल्पना रूपकार के मनमस्तिष्क पर छा गयी। उसने दीपाधार की वाती उकसाकर प्रकाश किया। देखा अम्मा अभी उठी नहीं है। उनकी वृद्धापन की देह, गृह-कार्य के परिश्रम से और दोनों पर्वतों की नित्य की यात्रा से, ऐसी श्लथ हो जाती थी कि शीतल पाटी पर गिरते ही, उन्हें गहरी नींद आ जाती थी। रूपकार ने एक बार अम्मा के निश्चिन्त मुख की ओर देखा। उसने स्मरण किया कि अपनी व्यस्तता में इधर कई दिनों से उनके पैर दाबने का उसका दैनिक क्रम भंग हो गया है। कोई बात नहीं, अब गृहकार्य के लिए सेवक नियोजित करके उन्हें खूब विश्राम देगा, ऐसा सोचकर रूपकार ने अपने आपको आश्वस्त किया। ____ रूपकार सहसा उठा और पार्ववर्ती कपाट को टालकर कोष्ठ में संकलित स्वर्ण-संग्रह की ओर अतृप्त मन से निहारने लगा। अत्यन्त सुखद लगा उसे यह स्वर्ण-दर्शन। कोई बिलम्ब नहीं लगा उसे कल्पना लोक में पहुँचते, जहाँ उसने विचारा
गोमटेश-गाथा | १२५