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२६. बाहुबली की मूर्तियाँ
रूपकार ने अब तक बाहुबली की एक भी प्रतिमा का निर्माण नहीं किया था। अपने पिता से भी इस दिशा में उसे कुछ ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था। तीर्थंकरों की भी अधिकांशतः पद्मासन या पर्यंकासन प्रतिमाएँ ही अब तक उसने बनायी थीं। खड्गासन मूर्तियाँ बहुत थोड़ी, बहुत छोटे आकार की बनाने का अवसर उसे मिला था।
वैसे तो तुम्हारे चौबीस तीर्थंकरों में से केवल, प्रथम ऋषभदेव, बारहवें बासुपूज्य और बाईसवें नेमिनाथ तथा चौबीसवें महावीर ही पद्मासन या पर्यंकासन से मुक्त हुए हैं। शेष तीर्थंकरों ने खड्ग के समान सीधे खड़े हुए, खड्गासन या कायोत्सर्ग आसन से ही अन्तिम ध्यान किया है, आदिनाथ का और महावीर का आसन होने के कारण यह पद्मासन या पर्यंकासन तुम लोगों को अधिक प्रिय हुआ। पर तुम्हारी कला-परम्परा में आसन का कोई निर्धारित क्रम कभी नहीं रहा। अपनी योजना और सुविधा के अनुसार प्रायः सभी तीर्थंकरों की, पद्मासन और खड़गासन, दोनों प्रकार की प्रतिमाएँ तुम्हारे शिल्पी प्रारम्भ से ही बनाते रहे। एक ही अपवाद हुआ कि बाहुबली को सदैव खड्गासन में ही अंकित किया गया । दीक्षा धारण करने के उपरान्त मोक्ष जाने तक, वे महाबली, उसी एक आसन से खड़े ही रहे, कभी बैठे नहीं। सम्भवतः इसीलिए उनकी मूर्तियाँ पद्मासन मुद्रा में कभी नहीं बनायी गयीं। आज तक भी नहीं।
नेमिचन्द्राचार्य, जैन आगम के जैसे पारगामी विद्वान् थे, जैन संस्कृति का भी उन्हें वैसा ही विशद अभ्यास था । दक्षिणावर्त में तो वे निरन्तर भ्रमणशील रहते ही थे, उत्तरापथ से भी उनका घनिष्ट सम्पर्क था। दूर-दूर तक उनके शिष्यों, अनुयायियों और भक्तों का निवास था।