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में अंकित करने का यही कारण है। गोमटेश-स्तुति के अनुवाद के बहाने मेरी कविता को एक और अवसर मिला है।
भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक भाई लक्ष्मीचन्द्रजी की प्रेरणा से ही इस लेखन का बीजारोपण एक दिन हुआ था , सहस्राब्दी समारोह पर प्रकाश्य हिन्दी स्मारिका के लिए 'एक पुरातत्व की अलिखित डायरी' शीर्षक से उन्होंने मुझे एक लेख लिखने का जो सुझाव दिया, उसी का परिवद्धित और सुसंस्कृत रूप यह उपन्यास है । श्रवणबेलगोल पर 'अंतर्द्वन्द्वों के पार : गोमटेश्वर वाहुबली' उनकी एक समृद्ध रचना है । उस पुस्तक का अवलोकन कई जगह मेरे लेखन में सहायक हुआ है। इस सबके लिए उनका आभार मानना मेरा कर्तव्य है।
श्रीयुत साहु श्रेयांसप्रसाद जी का प्रोत्साहन न मिलता तो मेरा छोटा-सा लेख, ऐतिहासिक उपन्यास का यह रूप ले पाता इसमें मुझे सन्देह है। बाबूजी के शेरो-शायरी के उत्कृष्ट खजाने की चर्चा छोड़ दें तो भी, साहित्य और इतिहास के विज्ञ और जागरूक पाठक का उनका यह रूप भी, थोड़े ही लोग जानते हैं। बड़ी पैनी दृष्टि से उन्होंने मेरे लेखन को देखा है। बड़ी तन्मयता से सुना है। उदारता से सराहा है । समय समय पर उनके उत्साहवर्धक टिप्पण, उपयोगी सुझाव और आलस्य हटाने वाले मीठे तकाजों से ही यह पुस्तक सहस्राब्दी समारोह पर आपके हाथों में आ सकी है। पुस्तक के नामकरण का और उसके लिए 'आमुख' लिख देने का मेरा आग्रह उन्होंने स्वीकार किया, भारतीय ज्ञानपीठ से उसके प्रकाशन की व्यवस्था की, यह सब मेरे प्रति बाबूजी के सहज स्नेह और गोमटेश के प्रति उनकी अपार भक्ति का प्रतीक है। दो वर्ष पूर्व से ही वे इस महोत्सव की संयोजना में प्राण-पण से लगे हुए हैं । इस उपन्यास पर आधारित नाटक को मंच पर देखने की उनकी आकांक्षा जिस दिन पूर्ण होगी उस दिन मुझे भी बहत प्रसन्नता होगी। बाबूजी को धन्यवाद देने की औपचारिकता मैं नहीं दिखा पाऊँगा।
प्रारंभिक लेखन से लेकर प्रेस कापी की तैयारी तक मेरे गुरुभाई अमरचन्द्रजी ने और मेरे मित्र डा० कन्हैयालाल अग्रवाल ने बड़ा परिश्रम किया है। भारतीय ज्ञानपीठ के डा० गुलाबचन्द्र जैन ने प्रकाशन को सुरुचिपूर्ण बनाने में तथा पाण्डुलिपि के संशोधन आदि में बहुमूल्य सहयोग दिया है । गृहस्थी की चिंताओं से महीनों तक मुझे मुक्त रखकर मेरी धर्मपत्नी इस साधना में बहुत सहायक हुई हैं। उन सबके सहयोग का सादर स्मरण करता हूँ।
___ माँ शारदा की आरती में यह छोटा-सा दिया लेकर उपस्थित है। यह बाल प्रयास सराहा जायगा या नहीं इसकी चिन्ता मैं क्यों करूँ ? अपने पाठकों की प्रतिक्रिया की अवश्य मुझे प्रतीक्षा रहेगी। वही प्रतिक्रिया मेरी लेखनी को मार्गदर्शन देगी, मेरे चिन्तन को दिशा प्रदान करेगी।
जय गोमटेश !
शान्ति सदन, सतना ३१-१०-१९८०
-नीरज जैन