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२४. अनिरुद्ध चेतना का निष्कण्टक साम्राज्य
चक्रवात का शक्तिशाली प्रकोप निस्तब्ध सागर में एकाएक ऊँचीऊँची लहरें उठा देता है। शान्त जल में बड़े-बड़े भँवर उठते हैं और समुद्र को तल तक मथ देते हैं। उनकी चपेट में शक्तिशाली पोत भी काष्ठफलक की तरह उलट-पलट हो जाते हैं। जलगर्भ में बडवाग्नि धधक उठती है। जलचरों की सृष्टि तहस-नहस हो जाती है, किन्तु चक्रवात थमते ही थोड़ी ही देर में सब कुछ सामान्य-सा हो जाता है। समूद्र वैसा ही शान्त और गम्भीर दिखाई देने लगता है। उस विप्लव की विनाशक शक्ति का अनुभव भुक्तभोगी ही कर सकते हैं। तट पर टहलनेवाले उस भयंकरता की कल्पना नहीं कर पाते। इसी प्रकार कषायों के भीषण चक्रवात में वह युद्धक्षेत्र फँस गया। थोड़ी देर पूर्व, दो घड़ी में जो कुछ वहाँ घट गया, दो प्रहर में भी उस अनुभव को कहा नहीं जा सकता। जिन्होंने उस प्रभंजन को भोगा था, वे ही उसकी भीषणता आँक सकते थे। उन दृश्यों की स्मृति बार-बार उन निरीह निरुपाय जनों को रोमांच और सिहरन दे जाती थी। सबने जदी-जदी वेदना के साथ उन विलक्षण क्षणों को जिया था।
बाहबली के निष्क्रमण के साथ वह चक्रवात पूरी तरह शान्त हो गया था। माघ मास की हिम-शीतल वायु का एक झोंका, जिस तरह हरे-भरे उपवन को शीत प्रकोप से जला देता है, बड़े-बड़े वृक्षों-पौधों को क्षण भर में निर्जीव कर देता है, उसी प्रकार कषाय के उद्रेक का प्रकोप, सारे वातावरण को दग्ध और जीवनविहीन-सा कर गया था। अब वहाँ सब कुछ नीरव और निर्जीव-सा लग रहा था। भरत नीरस काष्ठ की तरह अडोल और निश्चेष्ट खड़े थे। सेनाधिप और सैनिक, किंकर्तव्यविमूढ़ होकर एक दूसरे का मुख देख रहे थे। महाबली की बाहों में उनकी जननी