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२३. राग की लालिमा : विराग का सूर्योदय
__ चक्र के लौटते ही भरत की स्वाभाविक चेतना भी लौट आयी। क्रोध के स्थान पर पश्चाताप की भावना से उनका मन अभिभूत हो गया। झुका हुआ मस्तक बड़ी देर तक ऊपर उठाने का उन्हें साहस नहीं हुआ। वे विचारने लगे
'यह कैसा अपराध मुझसे बन गया ? शस्त्रविहीन बाहुबली पर चक्र का प्रहार, अपने प्रिय अनुज के घात का विचार, इतनी भीषण अनीति हुई मेरे द्वारा? यह क्या हो गया था मेरी बुद्धि को?'
-'ऋषभदेव का पुत्र मैं चक्रवर्ती भरत, कैसे इतना विवेकहीन हो गया? मैं यह भूल गया कि बाहुबली मेरा भाई है, और उचित अनुचित के विवेक से स्वतः संचालित यह चक्र, बन्धु-बान्धवों का घात नहीं करता। मैं यह भी भूल गया कि मेरा यह अनुज मोक्षगामी शलाकापुरुष है, ऐसे उत्तम शरीर का असमय अवसान कर दे, काल में ऐसी सामर्थ्य कहाँ है ?'
-'आज इस संघर्ष में मेरे भाग्य और शक्ति का निर्णय बार-बार हो गया। तीन बार होना था, चार बार हो गया। अयोध्या के सिंहासन पर अब मेरा कोई अधिकार नहीं। बाहुबली ही अब इस छह खण्ड पृथ्वी का अधिपति है। चक्रवर्ती को पराजित करनेवाला वही सुभट वास्तविक चक्रवर्ती है। उसका साम्राज्य उसे सौंपकर आत्मकल्याण की साधना में लगं, अब यही मेरे अपराध का परिमार्जन होगा।'
"प्रबुद्ध भरत ने मस्तक ऊपर उठाया। उनके नेत्रों से पश्चाताप के अश्रु झर रहे थे। किसी की ओर बिना देखे, किसी से बिना बोले, धीमी गति से वे चार पग चले और अपराधी की तरह हाथ बाँधकर बाहुबली के समक्ष खड़े हो गये। चरणों से ऊपर उनकी दृष्टि अनुज को देख ही