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दोनों उसके मन को व्यथित ही करेंगी।'
'एक दिन सोचती थी, प्रजा की हानि करनेवाले उच्छखल नरेशों को अनुशासित करके यह भरत, अपने इक्ष्वाकु वंश की कीर्ति को त्रिलोकव्यापिनी बना देगा। किन्तु लगता है, आज उसी भरत के कारण इस वंश पर कलंक का लांछन लगने जा रहा है। क्या यही दिन देखने के लिए हमारा जीवन शेष था सुनन्दा ?'
यशस्वती की वाणी में भरत पर जो आरोप थे उन्हें सुनकर मौन रह जाना सुनन्दा के लिए सम्भव नहीं था। लोक में वे बड़ी से बड़ी प्रताड़ना सह सकती थीं, पर भरत के विरुद्ध एक भी शब्द, चाहे भरत की जननी ही क्यों न कहे, उन्हें कभी सह्य नहीं था। प्रतिवाद किये बिना वे रह न सकी_ 'तुम्हारा आरोप सम्यक् नहीं है दीदी ! कोख से जनम देना ही तो सब कुछ नहीं है। जननी होकर भी तुमने भरत को जाना ही कहाँ है। उसका हृदय तो नवनीत-सा कोमल है। शिशु-सा निश्छल है। चक्रवर्ती होकर भी हमारा वह बेटा, भीतर से अकिंचन और निर्लेप ही है। सब वृत्तान्त जानकर तुमसे कहती हूँ दीदी, भरत तो इस संघर्ष को टालना ही चाहता है। सब लोग प्रयास करें तो सम्भव है बाहुबली भी टेक छोड़ दे। मैंने महामन्त्री को उपस्थित होने के लिए तुम्हारा आदेश भेजा है। हमें कुछ उपाय करना चाहिए, रुदन से यह विपदा नहीं टलेगी।'
एक दासी ने दीपक लाकर कक्ष में प्रकाश कर दिया। तभी प्रतिहारी ने राजमाता के चरणों में महामन्त्री का प्रणाम निवेदन किया। यशस्वती महारानी का इंगित पाते हो अयोध्या के वयोवृद्ध महामन्त्री कक्ष में उपस्थित हुए। सम्मान सहित दोनों राजमाताओं का अभिवादन करके विनयपूर्वक वे एक ओर खड़े हो गये। दोनों हाथ बाँधकर खड़े हुए नतनयन वे वृद्ध, अवसाद की प्रतिमूर्ति ही दिखाई दे रहे थे। उनका मुख विवर्ण हो रहा था।
क्षण-भर में ही यशस्वती का मर्मान्तक प्रश्न उनके कानों से टकराया_ 'यह मैं क्या सुनती हूँ महामन्त्री जी! राजकुल के विवाद हल करने के लिए युद्ध-क्षेत्र के बाहर कोई स्थान आप लोगों को उपयुक्त नहीं लगा? अपने लोकपूज्य स्वामी के दो पुत्रों का संघर्ष ही क्या आपके नीतिकौशल की अन्तिम उपलब्धि होगी?'
'सेवक लज्जित है महादेवी ! संघर्ष को टालने के सारे उपाय असफल होते जा रहे हैं। इक्ष्वाकु वंश का उपकार, रक्त बनकर इस अधम ८६ / गोमटेश-गाथा