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भूमि का प्रारम्भ होना हो, तो फिर वही हो । भाग्य का लेख कौन टाल सकता है !'
'देखती हूँ स्वामी आज अधिक उद्विग्न हैं । प्रलय की झंझा में भी मेरु को ढिगते और सिन्धु को सीमा छोड़ते मैंने कभी सुना नहीं ।'
'उद्विग्नता का कारण कुछ और है देवी ! बाहुबली युद्ध के आतंक आतंकित नहीं है । जय-पराजय का सोच भी उसे आन्दोलित नहीं कर रहा । किन्तु अतीत की कुछ स्मृतियाँ बिजली-सी कौंध कर, आज उसके मन को बार-बार अशान्त कर रही हैं ।'
- जबसे सुधि करता हूँ, पूरा बाल्यकाल अग्रज के स्नेह से ओत-प्रोत दिखाई देता है । जननी की गोद से अधिक स्नेह, बड़ी माँ की गोद में भरत के साथ बैठकर ही पाया है । अयोध्या के उस विशाल राजमहल में कोई वस्तु तो ऐसी नहीं थी, जो कामना करते ही स्वयं भरत ने अपने इस और अनुज को उपलब्ध न करा दी हो । उनका प्रिय से प्रिय भोज्य, अच्छे से अच्छा खिलौना, इच्छा करते ही उन्हीं के हाथों से हमें तत्काल मिलता था । हमारे प्रिय पदार्थों में से एक भी पाने के लिए भरत कभी हठ किया हो, ऐसा हमें स्मरण नहीं है ।
-पिता के अंक में बैठकर कथा सुनना भरत को बहुत प्रिय था । अवसर पाते ही हठपूर्वक वे अपना चाव पूरा कर लेते थे, परन्तु हमें वह स्थान प्रदान करने में उन उदार अग्रज ने कभी कृपणता नहीं की । हमारे पहुँचते ही वे स्वतः पिता के अंक से उतर जाते थे ।
- फिर स्मरण करता हूँ, सरयू के उथले जल में दो-दो घड़ी तक हम क्रीड़ा करते थे । मैं छोटा था, थक जाता तब भरत अपनी बलिष्ठ बाहों का सहारा देकर मेरा उत्साह बढ़ा देते थे । जन्म से ही भरत शान्त प्रकृति के थे, मैं कुछ चपल था । खेलते समय सखावृन्द का कुछ अपराध बन जाने पर, जननी के न्यायालय में जब-जब मेरी सुनवाई होती, तब अग्रज ही सदैव मेरा पक्ष लेते थे ।
- जब कभी माता सुनन्दा का यह उपद्रवी बेटा, जननी के हाथों ही बन्धन में डालकर, महल के किसी कोने में रुद्ध कर दिया जाता, तब प्रताड़ित बालसखा तालियाँ बजा-बजाकर, नाच-नाच कर उसका उपहास करते थे। ऐसे विपदा काल में बड़ी माँ को बुलाकर उसे मुक्त कराने की चिन्ता केवल भरत को होती थी । इतना भर नहीं, इसके लिए जननी को बड़ी माँ की प्रताड़ना तक सुनना पड़ती थी । वे अपनी सफाई देतीं - 'तुम नहीं जानती दीदी ! लाड़ में यह कैसा उद्दण्ड हो गया है । मुझे तो कुछ समझता ही नहीं । देखना
गोमटेश - गाथा / ७६