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ग्रन्थ के संग्रहकर्ता परम पूज्य श्री १०८ गणधराचार्य
वात्सल्य रत्नाकर, श्रमरण रत्न, स्याद्वाद केशरी वादिभ सूरि जिनागम सिद्धान्त महोदधि कुन्थु सागरजी महाराज के प्रकाशित ग्रन्थ के बारे में विचार एवं
मंगलमय शुभाशीर्वात के
दो शब्द
वर्तमान में यह जो इन्द्रिय सुख के लिए इधर-उधर के मांत्रिक-तांत्रिक का सहारा ले रहा है। अनेक प्रकार की इस प्रकार अपने इष्ट की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है। नहीं है ।
भटक रहा है। नाना प्रकार मिथ्या मान्यताएँ करता है । ऐसे जीव को धर्म की चाह
जीव जब तक केवली प्रणीत धर्म की शरण में नहीं जाता है, तब तक उसे शांति नहीं मिलती है और सच्चे सुख को प्राप्ति भी नहीं होती हैं ।
प्रत्येक जीव इसी बात को चाह रहा है कि मेरी इष्ट सिद्धि हो, घर में अटूट घन हो, परिवार में शांति हो, पुत्र, पौत्र से घर भरा रहे समाज में मेरा सम्मान रहे, शरीर निरोगी रहे। इसी की पूर्ति में प्रत्येक मनुष्य रात दिन लगा रहता है। इसके लिए अनेक जगह जाता है, परन्तु निराशा हाथ लगती है और कुछ भी उसको प्राप्त नहीं होता है ।
सुख शान्ति के लिये पूर्व पुष्य की परम आवश्यकता हैं। जब तक पूर्व पुण्य नहीं होगा तब तक कार्य सिद्ध नहीं होता है ।
कार्य की सिद्धि के लिए पूर्व पुण्य और पुरुषार्थ की परम आवश्यकता होती है । सुपुरुषार्थं नहीं तो पुण्य नहीं और पुण्य नहीं तो पुरुषार्थ का फल प्राप्त नहीं
होता है 1