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________________ -1 कालद्वार ५ (पडिवायाभावाओ) सिद्धांके जीवोंको पिछा पडनेका अभाव है ॥ इति छठा द्वार ६ (सिद्धार्णअंतर-1 नत्थि) सिद्धोंके जीवोंको अन्तर नहीं हैं कालकृत और क्षेत्रकृत दोनोंसें इति सातमा द्वार ॥ १८ ॥ सबजियाणमणते भागेतेतेसिंदसणंनाणं । खइएभावेपरिणामि एअपुणहोइजीवत्तं ॥ ४॥ | (सबजियाणमणंते ) सब संसारी जीवोंमे सिद्ध के जीवों अनन्तमें (भागे) भागमे हैं इति आठमो द्वार ८ (तेतेसिदसणंनाणं) उन सिद्धोके जीवोंके केवलदर्शन और केवलज्ञान (खइए) क्षायिक (भाव) भावमे है (परिणामी एअ) परिणामी हैं (पुण ) यह पुनः (होइजीवत्तं) जीवत्वपना है ॥४९॥ थोवानपुंससिद्धा थीनरसिद्धायकमेणसंखगुणा । इअमुक्खतत्तमेअं नवत्तत्तालेसओभणिआ ॥५॥ P (थोवा ) सबसे कम (नपुंस) नपुंसक ( सिद्धा) सिद्ध हुवा (थी) नपुंसकसे स्त्रीसिद्ध संख्यातगुणा अधीक हैं स्त्री सिद्धसे (नरसिद्धा) पुरुप सिद्ध संख्यातगुणे हुए (कमेणसंखगुणा) अनुक्रमें संख्यातगुणा जानना (इअमुक्ख) | यह मोक्ष (तत्तमेअं) तत्त्व जाणना इस प्रकारसें नव भेद कहे ( नवतत्तालेसओभणिआ) इस प्रकारे नव तत्त्व संक्षेपसे । कहेगये ॥५०॥ | जीवाइनवपयत्थे जोजाणइतस्सहोइसम्मत्तं । भावेणसदहंतो अयाणमाणेविसम्मत्तं ॥ ५१ ॥ (जीवाइ ) जीवादि (नयपयस्थे ) नव पदार्थको (जोजाणइ ) जो जीव जाणते है ( तस्सहोइसम्मत्तं ) उस जीवको
SR No.090175
Book TitleJivvicharadiprakaransangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJindattsuri Gyanbhandar Surat
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size7 MB
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