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________________ 18|| बनाता है तेसे ही यह नामकर्म आत्माको अछी बुरी गतियोंमे पहुंचा देता है नाना प्रकारके स्वरूपको धारण करा देता है ६ (कुलाल) यह गोत्रकर्म कुंभार जैसा है जैसे कुंभार अछे और बुरे नाना प्रकारके वरतन बनाते है तैसेही इस कर्मके उदयसें जीव ऊंच निच कुलको धारण करते है ७ (भंडगारीणं) इस अन्तराय कर्मका स्वभाव भंडारी जैसा । ६ हैं क्योंकि जब राजा किसीको दान देने के लिये भंडारीको कहै परन्तु भंडारी उसको देवे नहीं ऐसेही इस कर्मके उद: यसे जीव दानादि नहीं कर शकते है ८ (जहएएसिंभावा) जैसे इनुका भाव जैसा यह आठोही वस्तुका खभाव है। (कम्माण ) तैसेही आठोही कौकाभी (विजाण) जानो (तहभावा) तैसेही कोंका स्वभाव ।। ३८ ॥ इहनाणदंसणावरण वेयमोहाउनामगोआणि । विग्धंचपणनवदुअठवीस चउतिसयदुपणविहं ॥ ३९॥ (इहनाण ) यह ज्ञानावरणीयकर्म १ (दसणावरण) और दुसरा दर्शनावरणीकर्म २ (यमोहाउनामगोआणि ) तीसरा वेदनीयकर्म ३ ४ मोहीनीकर्म ५ आयुकर्म ६ नामकर्म और सातमा गोत्रकर्म ७ (विग्धं) अन्तरायकर्म ८ (च) यह आठ कर्म (पण) ज्ञानावरणीयकी उत्तर प्रकृतियों पाँच है (नव) और दर्शनावरणीयकी उत्तरप्रकृति नव (दु) वेदनीकी प्रकृति दो (अठवीस) मोहीनीकर्मकी उत्तर प्रकृति अठ्ठावीस (चर) आयुकर्म की उत्तर प्रकृति चार (तिसय)। नामकर्मकी उत्तर प्रकृति एकसो तीन (दु) गोत्रकर्मकी उत्तर प्रकृति दो (पण) और अन्तराय कर्मकी उत्तर प्रकृति || पांच (विहं) ऐसे सब कर्मोंकी उत्तर प्रकृति एकसे अहाक्न जान लेना ॥ ३९॥
SR No.090175
Book TitleJivvicharadiprakaransangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJindattsuri Gyanbhandar Surat
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size7 MB
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