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________________ -- है आत्माका मूलधर्म अविनाशी है १ ( असरणं) अशरण भावना कि मृत्युके समय इस जीवको संसारमें धर्म बिना कोई भी शरणभूत नही है एक धर्मही शरण है ऐसा बिधारना सो २ (संसारो) संसारभावना इस भावनामें भव्य । ऐसा विचारे कि मेरे जीवने चौरासी लाख योनिमें परिचमण करते अनन्तेकालचक्र होगये है इस संसारमें पिता सो पुत्र और पुत्र सो पिता ऐसा उलट सुलट अनंती बेर होता है ऐसा विचारना सो संसार भावना ३ (एगयाय) एकत्व 5 भावना इस भावनामें भव्य ऐसा चिंतवे कि मेरा जीव अकेलाही आये है और अकेलाही जावेंगा सुखदुःख भी अके-11 लाही भोगेंगो ४ (अन्नत्तं) अन्यत्त्व भावना इसमें भव्य ऐसा विचारे कि मेरा आत्मा अनन्त ज्ञानमयी है और शरीर जड पदार्थ है शरीर आत्मा नहीं है न आत्मा शरीर है ऐसा सदैव विचारे ५ (असुइतं) अशुधि भावना यह शरीर | खून माँस हड्डी मलमूत्र आदिसें भराहुआ ऐसा जो विचारना वह अशुचित्व भावना ६ (आसव) आम्रव भावना रागद्वेष और अज्ञान मिथ्याख आदिके जोरसें नये नये कमेका जो आना अधोत शुभाशुभका विचार वह आम्रव (संवरोअ) संवर भावना शुभाशुभ विचारको छोडकर स्वसरूपमें लीन रहना अर्थात् नवीन कर्मको आने नहीं देना है। वह निश्चय संवर और अकेला अशुभ विचारोंको रोकदेना सो व्यवहार संवर भावना ८ (तह) तेसेही (निजरानहै। वमी) नवमी निर्जरा भावना निर्जराके दो भेद है एक सकाम निर्जरा और दुसरी अकाम निर्जरा ९॥३०॥ 2 लोगसहावोबोही दुल्लहाधम्मस्ससाहगाअरिहा । एआओभावणाओ भावेअवापयत्तेणं ॥ ३१॥ a (लोगसहावो) दशमी लोकस्वभाव भावना इसमें चौदहराजलोकका स्वरूप विचारना ( बोहीदुलहा ) ११ मी
SR No.090175
Book TitleJivvicharadiprakaransangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJindattsuri Gyanbhandar Surat
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size7 MB
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