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(असन्नि-सन्नि-पंचिंदिएसु) असंही पञ्चेन्द्रिय तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंको (कमेण ) क्रमसे (नव दस) नव। और दस प्राण (बोधधा) जाणना. (तेहि सह ) उनके साथ (विप्पओगो) विप्रयोग-वियोग, (जीवाणं) जीवोंका (मरणं) मरण (भण्णए) कहलाता है ॥ ४३ ॥
भावार्थ-असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंको त्वचा, जीभ, नाक, आँख, कान, श्वासोच्छ्वास, आयु, कायवल और वचनबल ये [४ नव प्राण होते हैं और संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंको पूर्वोक्त नव और मनोबल, ये दस प्राण होते हैं. जिनको जितने प्राण कहे
गये हैं, उन प्राणों के साथ वियोग होना ही उन जीवोका मरण कहलाता है. देव, नारक, गर्भज तिश्च तथा गर्भजा मनुष्य, ये संज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं. सम्मूञ्छिम तिर्यच और सम्मूञ्छिम मनुष्य, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं. सम्मूच्छिम मनुष्योंको मनोवल और वाक्बल नहीं है, इसलिये उनके आठ प्राण, और, श्वासोच्छ्वास पयोप्ति पूर्ण न होने के कारण साढा सात प्राण होते हैं.
एवं अणोरपारे, संसारे सायरंमि भीमंमि । पत्तो अणतखुत्तो, जीवहिं अपत्तधम्महि ॥ ४४ ॥
(अपत्तधम्मेहिं ) नहीं पाया है धर्म जिन्होंने ऐसे (जीवहिं ) जीवोंने (अणोरपारे) आर-पार-रहित-आदि४ अन्त-रहित (भीमंमि ) भयङ्कर (संसारे सायरंमि) संसाररूप समुद्र में (एवं) इस प्रकार-प्राण-वियोग-रूप मरण
(अणतखुत्तो) अनन्त वार (पत्तो) प्राप्त किया ॥ ४४ ।।