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यमि) अपनी काया (उववजति ) उत्पन्न होते हैं (अ) और (चयंति ) मरते हैं; (अणंतकाया) अनन्तकाय जीव (अणंताओ) अनन्त उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी तक ।। ४० ।। | भावार्थ- पृथ्वी, अप, तेज, वायु और प्रत्येक वनस्पतिकायके जीव, उसी पृथ्वी आदिकी अपनी कायामें, असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक पैदा होते तथा मरते हैं। अनन्तकायके जीव तो उसी अपनी कायामें अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी तक पैदा होते तथा मरते हैं. | H०-उत्सर्पिणी किसको कहते हैं ? उ०-दस कोड़ा कोड़ी सागरोपमकी एक उत्सर्पिणी तथा उतनेकी ही एक अवसर्पिणी होती है. संखिजसमा विगला, सत्तट्ट भवा पणिदि-तिस्मिणुया। उववजति सकाए, नारय देवा अ नो चेव ॥४१॥ | (विगला) विकलेन्द्रिय जीव (संखिज्जसमा) संख्यात हजार वर्षों तक (सकाए) अपनी कायामें (उववजंति ) पैदा
होते हैं, (पणिदि-तिरि-मणुया) पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य ( सत्तद भवा) सात-आठ भव तक, लेकिन (नारय || देवा) नारक और देव (नो चेच) नहीं ॥ ४१ ॥ । भावार्थ-दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव, स्वकायामें संख्यात हजार वर्षांतक पैदा होते तथा मरते हैं।
पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च तथा मनुष्य लगातार सात तथा आठ भव करते हैं अर्थात् मनुष्य, लगातार सात-आठ वार, मनु ४ व्य-शरीर धारण कर सकता है, इस प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च भी. लेकीन देवता तथा नारक जीव मरकर फिर तुरन्त ,
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