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________________ र्वापराविरुद्धं मिथ्यात्वासंयमकषायभ्रान्तिरहितं स्याद्वादोपेतं वाक्यं अन्येषां शिष्टानामपि वाक्यं आगमः । लिङ्गग्रहणाद् ज्ञेयज्ञानोपकारक अर्थापत्तिप्रमाणं, यथा पीनो देवदत्तो दिवा न भुते तदा अर्थाद्रात्रौ भुझे एव, इत्यादि प्रमाणपरिपाटीगृहीतजीवाजीवस्वरूपः सम्यक्ज्ञानी उच्यते. अर्थ-हवे प्रमाणनुं स्वरूप कहे छे सर्व नयना स्वरूपने ग्रहण करनारो तथा सर्व धर्मनो जाणंगपणो छ जेमां एहबु जे ज्ञान तेरे माग कहिले जे माग से मालदा नुं गाना छे. त्रण जगतना सर्व प्रमेयने मापवानुं प्रमाण ते ज्ञान छे अने| ते प्रमाणनो कर्त्ता आत्मा ते प्रमाता छे ते प्रत्यक्षादि प्रमाणे सिद्ध के० ठहेखो छे चैतन्य स्वरूप परिणामी छे. बली भवन धर्मथी उत्पाद व्ययपणे परिणमे छे ते माटे परिणामिक छे. तथा का छे तथा भोक्ता छे, जे कर्ता होय तेज | |भोक्ता होय. भोक्तापणा विना सुखमयी कहेवाय नही ते चैतन्य संसारीपणे स्वदेह परिमाण छ प्रतिक्षेत्र के प्रत्येकें शरीर भिन्नपणा माटे भिन्न जीव छे ते जीव पांच कारणनी सामग्री पामीने सम्यग्दर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्रने साधवाथी संपूर्ण, अविनाशी, निर्मल, नि:कलंक, असहाय, अप्रयास, स्वगुण निरावरण, स्वकार्य प्रवृत्ति, अक्षर, अव्या-1 बाध, सुखमयी, एबी सिद्धता निष्पन्नता नीपजे एज साधन मार्ग छे. स्व शब्दै करी आत्मा परशब्दें परद्रव्य स्व आत्माथीभिन्न अनंता पर जीव धर्मादिक तेना व्यवसायी व्यवच्छेदक जे HeKHECHAKRICKokkk
SR No.090175
Book TitleJivvicharadiprakaransangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJindattsuri Gyanbhandar Surat
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size7 MB
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