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________________ [११ -२. १७ ] परिकर्मव्यवहारः नन्दायतुशरचतुतिद्वन्द्वकं स्थाप्यमत्र नवगुणितम् । आचार्यमहावीरैः कथितं नरपालकण्ठिकाभरणम् ॥१०॥ षत्रिकं पञ्चषटकं च सप्त चादौ प्रतिष्ठितम् । त्रयस्त्रिंशत्संगुणितं कण्ठाभरणमादिशैत् ॥११॥ हुतवहगतिशशिमुनिभिर्वसुनयगतिचन्द्रमत्र संस्थाप्य । शैलेन तु गुणयित्वा कथयेदं रत्नकण्ठिकाभरणम् ॥१२॥ अनलाब्धिहिमगुमुनिशरदुरिताक्षिपयोधिसोममास्थाप्य । शैलेन तु गुणयित्वा कथय त्वं राजकण्ठिकाभरणम् ॥१३।। गिरिगुणदिविगिरिगुणदिविगिरिगुणनिकरं तथैव गुणगुणितम् । पुनरेवं गुणगुणितम् एकादिनवोत्तरं विद्धि ॥१४॥ सप्त शून्यं दे॒यं द्वन्द्वं पञ्चैकं च प्रतिष्ठितम् । त्रयः सप्ततिसंगुण्यं" कण्ठाभरणमादिशेत् ॥१५॥ जलनिधिपयोधिशशधरनयनद्रव्याक्षिनिकरमास्थाप्य । गुणिते तु चतुःषष्टया का संख्या गणितविद्वहि ॥१६॥ शशाङ्केन्दुखैकेन्दुशून्यैकरूपं निधाय क्रमेणात्र राशिप्रमाणम् । हिमांश्वग्ररन्धैः प्रसंताडितेऽस्मिन् भवेत्कण्ठिका राजपुत्रस्य योग्या ॥१७॥ इति परिकर्मविधौ प्रथमः प्रत्युत्पन्नः समाप्तः । १श्लोक १० से १५ तक केवल M और B में प्राप्य हैं । २ सभी हस्तलिपियों में 'स्थाप्य तत्र पाठ है। ३ B शे। ४ B नयं १. सभी हस्तलिपियों में छंद रूपेण अशुद्ध पाठ "कण्ठाभरणं विनिर्दिशेतू, है। की रचना करती है ॥१०॥ ३ को छः बार, ६ को पाँच बार, और ७ को एक बार अवरोही क्रम से (इकाई के स्थान की ओर) लिखकर, इस संख्या का ३३ से गुणन करने पर एक प्रकार के हार की संख्या प्राप्त होती है ॥११॥ इस प्रश्न में, ३, ४, १, ७, ८, २, ४ और १ अंकों को इकाई के स्थान से ऊपर की ओर के क्रम में लिखने पर संख्या का ७ से गुणन करो; और तब कहो कि वह रत्न कंठिका नामक आभरण है ॥ १२॥ १४२८५७१४३ संख्या को लिखकर उसे ७ से गुणित करो; और तब कहो कि वह राजकण्ठिका आभरण है ।।१३॥ इसी तरह, ३७०३७०३७ को ३ से गुणित करो । इस गणनफल को फिर गुणित करो ताकि गुणक क्रमशः एक से लेकर ९ तक हों॥१४॥ ७, ०,२, २, ५ और १ अंकों को (इकाई के स्थान से ऊपर की ओर के क्रम में ) रखते हैं । और इस संख्या को ७३ से गुणित करते हैं। प्राप्त संख्या को कण्ठ आभरण कहते हैं ॥१५॥ इकाई के स्थान से ऊपर की ओर अंक ४, ४, १,२,६ और २ क्रमानुसार लिखकर, प्ररूपित संख्या को ६४ से गुणित करने पर हे गणित विद्र हि, बतलाओ कि कौन सी संख्या प्राप्त होगी ? ॥१६॥ इस प्रश्न में, इकाई के स्थान से ऊपर की ओर १,१,०,१,१,०,१ और १ अंकों को क्रमानुसार रखने से एक विशेष संख्या का मान होता है; और तब इस संख्या में ९१ का गुणा करने पर राजपुत्र के योग्य कण्ठहार प्राप्त होता है ॥१७॥ इस प्रकार, परिकर्म व्यवहार में, प्रत्युत्पन्न नामक परिच्छेद समाप्त हुआ। (१०) इसमें तथा अन्य गाथाओं में कुछ संख्याएँ विभिन्न प्रकार के हारों की रचना करती हई मानी गई हैं। क्योंकि उनमें एक से अंकों का शीघ्र ही दृष्टिगोचर होनेवाला सम्मितीय विन्यास रहता है। (११) यहाँ गुण्य ३३३३३३६६६६६७ है । (१४) यह प्रश्न, स्वतः, इस रूपमें अवतरित हो जाता है : ३७०३७०३७ ४ ३ को १, २, ३, ४, ५, ६,७,८ और ९ द्वारा क्रमानुसार गुणित करो।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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