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________________ -२. १ ] परिकर्मव्यवहारः २. परिकर्मव्यवहारः इतः परं परिकर्माभिधानं प्रथमव्यवहारमुदाहरिष्यामः । प्रत्युत्पन्नः तत्रे प्रथमे प्रत्युत्पन्नपरिकर्मणि करणसूत्रं यथागुणगुणेन गुण्यं कवाट संधिक्रमेणै संस्थाप्य । राश्यर्घखण्डतत्स्थैरनुलोम विलोम मार्गाभ्याम् ||१|| १ K तत्र च । २ K और B विन्यस्योभौ राशी । ३ K और B सगुणयेत् । २. परिकर्म व्यवहार [ अङ्कगणित सम्बन्धी क्रियाएँ ] इसके पश्चात्, हम परिकर्म नामक प्रथम व्यवहार प्रकट करते हैं। प्रत्युत्पन्न (गुणन ) परिकर्म क्रियाओं में प्रथम गुणन के क्रिया-सम्बन्धी नियम निम्नलिखित हैं जिस तरह दरवाजे की कोरें रहती हैं, उसी प्रकार गुण्य और गुणक को एक-दूसरे के नीचे रखकर, गुण्य को गुणक से दो रीतियों ( अनुलोम अथवा विलोम क्रम से हल करने की विधियों ) में से किसी एक द्वारा गुणित करना चाहिये । प्रथम विधि में गुण्य के खंड द्वारा गुण्य को विभा जित और गुणक को गुणित करते हैं । द्वितीय विधि में, गुणक के खंड द्वारा गुणक को विभाजित तथा गुण्य को गुणित करते । तृतीय विधि में उन्हें उसी रूप में लेकर गुणन करते हैं ॥ १ ॥ ( १ ) प्रतीक रूप से यह नियम इस प्रकार है‘अब' को ‘सद’ से गुणा करने पर गुणनफल ( i ) अब अ x (अ x सद); या (ii) (अब × स) X सव या (ii) अब X सद होता है । यह स्पष्ट है कि प्रथम दो विधियों को उपर्युक्त गुणनखण्डों के चुनाव द्वारा क्रिया को सरल करने के उपयोग में लाते हैं । अनुलोम, अथवा हल करने की सामान्य विधि वह है जो व्यापक रूपसे उपयोग में लाई जाती है । विलोम विधि निम्नलिखित है १९९८ २७ १९९८ में २७ का गुणा करने के लिये प्रत्येक स्तंभ का योग करने पर उत्तर ५३९४६ प्राप्त होता है ग० सा० सं०-२ २४१ २४९ २x९ २४८ ७१ ७९ ७९ 0X6 २ · १ ८ १ 6) me you [3 ३ ९ ५ ४
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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