________________
गणितसारसंग्रहः
तद्वयं सार्धकं कर्षः पुराणांश्चतुरः पलम् । रूप्ये मागधमानेन प्राहुः संख्यानकोविदाः ॥४१!
अथ लोहपरिभाषा कला नाम चतुष्पादाः सपादाः षट्कला यवः । यवैश्चतुर्भिरंशः स्याद्भागोंऽशानां चतुष्टयम् ॥४२॥ द्रक्षुणो भागषट्केन दीनारोऽस्माद्विसङ्गुणः । द्वौ दीनारौ सतेरं स्यात्प्राहुलॊहेऽत्र सूरयः ।।४।। पलैादशभिः सार्धेः प्रस्थः फलशतद्वयम् । तुलादशतुलाभारः संख्यादक्षाः प्रचक्षते ॥४४॥ वस्त्राभरणवेत्राणां युगलान्यत्र विंशतिः । कोटिकानन्तरं भाष्ये परिकर्मणि नामतः ।।४५।।
___ अथ परिकमनामानि आदिमं गुणकारोऽत्र प्रत्युत्पन्नोऽपि तद्भवेत् । द्वितीयं भागहाराख्यं तृतीयं कृतिरुच्यते ।।४।। चतुर्थ वर्गमूलं हि भाष्यते पञ्चमं घनः । घनमूलं ततः षष्ठं सप्तमं च चितिः स्मृतम् ॥४७॥ तत्संकलितमप्युक्तं व्युत्कलितमतोऽष्टमम्। तच्च शेषमिति प्रोक्तं भिन्नान्यष्टावमून्यपि ।।४।।
अथ धनर्णशून्यविषयकसामान्यनियमाः ताडितः खेन राशिः खं सोऽविकारी हृतो युतः। हीनोऽपि खवधादिः खं योगे खं योज्यरूपकम् ४९।
१ . सतेराख्यम् । २ M रं । ३ M डि । ४ M विद्यात्कला सवर्णस्य । यहाँ चौथी संयुक्ति और कर्तृवाच्य है। गणना में कुशल व्यक्ति कहते हैं कि मगध माप के अनुसार उपर्युक्त रजत-माप हैं ॥४१॥
__लोह-परिभाषा [ लोह धातुमाप-सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दावलि ]
एक कला में चार पाद होते हैं; सवा छः कला का एक यव होता है; चार यव का एक अंश तथा चार अंश का एक भाग होता है ॥४२॥ छः भाग का एक द्रषण, दो द्रषण का एक दीनार और दो दीनार का एक सतेर होता है। लोह धातु के माप के सम्बन्ध में विद्वान् ऐसा कहते हैं ॥४३॥ साढ़े बारह पल मिलकर एक प्रस्थ होता है; दो सौ पल मिलकर एक तुला और दस तुला मिलकर एक भार होता है । ऐसा गणना में दक्ष विद्वान् कहते हैं ॥४४॥ इस माप में, बेत अथवा आभरण अथवा वस्त्रों के बीस युग्मों (जोड़ियों) की एक कोटिका होती है । इसके पश्चात् मैं गणित की मुख्य क्रियाओं के नाम देता हूँ ॥४५॥
___ परिकर्म नामावलि [ गणित की मुख्य क्रियाओं के नाम ] इन क्रियाओं में प्रथम गुणकार ( गुणा ) है, और वह प्रत्युत्पन्न भी कहलाता है। दूसरी भागहार ( भाग या भाजन) कहलाती है; और कृति ( वर्ग करना) तीसरी क्रिया का नाम है ॥४॥ चौथी, सामान्यतः वर्गमूल है और पाँचवी घन कहलाती है; छठवीं घनमूल और सातवीं चिति (योग) कहलाती है ॥४७॥ इसे संकलित भी कहते हैं। आठवीं व्युत्कलित (पूरी श्रेढि में से आरम्भ से ली गई उसी श्रेढि का कुछ भाग घटा देना ) है जो शेष भी कहलाती है ॥४८॥ ये सब आठ क्रियायें भिन्न में भी प्रयुक्त होती हैं।
शून्य तथा धनात्मक एवं ऋणात्मक राशियों सम्बन्धी सामान्य नियम कोई भी संख्या शून्य से गणित होने पर शून्य हो जाती है और वह चाहे शून्य के द्वारा विभाजित अथवा शून्य द्वारा घटाई जावे या शून्य में जोड़ी जावे, बदलती नहीं है।
गुणा तथा अन्य क्रियाएं शून्य के सम्बन्ध में शून्य की उत्पत्ति करती है और योग की क्रिया में शन्य वही संख्या हो जाता है जिसमें वह जोड़ा जाता है॥४९॥
(४९) यह सरलतापूर्वक देखा जा सकता है कि कोई संख्या जब शून्य द्वारा भाजित की जाती है,