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१.संज्ञाधिकारः नारकाणां च सर्वेषां श्रेणीबन्धेन्द्रकोत्कराः । प्रकीर्णकप्रमाणाद्या बुध्यन्ते गणितेन ते ॥१४॥ प्राणिनां तत्र संस्थानमायुरष्टगुणादयः । यात्राद्याः संहिताद्याश्च सर्वे ते गणिताश्रयाः ।।१५।। बहुभिर्विप्रलापैः किं त्रैलोक्ये सचराचरे । यत्किंचिद्वस्तु तत्सर्वं गणितेन विना न हि ।।१६।। तीर्थकृयः कृतार्थेभ्यः पूज्येभ्यो जगदीश्वरैः । तेषां शिष्यप्रशिष्येभ्यः प्रसिद्धाद्गुरुपर्वतः ॥१७॥ जलधेरिव रत्नानि पाषाणादिव काञ्चनम् । शुक्तेमुक्ताफलानीव संख्याज्ञानमहोदधेः ।।१८।। किंचिदुद्धृत्य तत्सारं वक्ष्येऽहं मतिशक्तितः । अल्पं ग्रन्थमनल्पार्थं गणितं सारसंग्रहम् ।।१९।। संज्ञाम्भोभिरंथो पूर्ण परिकर्मोरुवेदिके । कलासवर्णसंरूढलुठत्पाठीनसंकुले ॥२०॥ प्रकीर्णकमहाग्राहे त्रैराशिकतरङ्गिणि । मिश्रकव्यवहारोद्यत्सूक्तिरत्नांशुपिञ्जरे ॥२१॥ क्षेत्रविस्तीर्णपाताले खाताख्यंसिकताकुले । करणस्कन्धसंबन्धच्छायावेलाविराजिते ॥२२॥ गुणकैर्गुणसंपूर्णैस्तदर्थमणयोऽमलाः । गृह्यन्ते करणोपायैः सारसंग्रहवारिधौ ।।२३।।
अथ संज्ञा
न शक्यतेऽर्थो बोढुं यत्सर्वस्मिन् संज्ञया विना।आदावतोऽस्य शास्त्रस्य परिभाषाभिधास्यते ॥२४॥
१ KMB बद्धे । २ M वसु । ३ KP ज्ञान के स्थान में नव । ४ MB अल्प । ५ K संज्ञातोयसमा । ६ M द्ध ( सम्भवतः त्थ को लिखने में भूल हुई है।) ७ MB संकटे । ८ P छ ।
(श्रेणिरहित ) निवास स्थानों के माप और अन्य सब प्रकार के विभिन्न माप-सभी गणित के द्वारा जाने जाते हैं ॥१३-१४॥ उन स्थानों में रहने वाले जीवों के संस्थान, आयु, उनके आठ गुण आदि, उनकी गति (यात्रा) आदि, उनका साथ रहना आदि, इन सबका आधार गणित है ॥१५॥ और व्यर्थ के प्रलापों से क्या लाभ है ? जो कुछ इन तीनों लोकों में चराचर (गतिशील और स्थिर) वस्तुएँ हैं उनका अस्तित्व गणित से विलग नहीं ॥१६॥ मैं, तीर्थ को उत्पन्न करने वाले, कृतार्थ और जगदीश्वरों से पूजित (तीर्थङ्करों) की शिष्य प्रशिष्यात्मक प्रसिद्ध गुरु परम्परा से आये हुए संख्याज्ञान महासागर से उसका कुछ सार एकत्रित कर, उसी तरह, जैसे कि समुद्र से रत्न, पाषाणमय चट्टान से स्वर्ण और शुक्त (oyster shell) से मुक्ताफल प्राप्त करते हैं, अल्प होते हुए भी अनल्प अर्थ को धारण करने वाले सारसंग्रह नामक गणित ग्रंथ को अपनी बुद्धि की शक्ति के अनुसार प्रकाशित करता हूँ ॥१७-१८-१९॥ तदनुसार, इस सारसंग्रह के सागर से, जो पारिभाषिक शब्दावलि रूपी जल से परिपूर्ण है और जिसकी आठ गणित की क्रियायें किनारे रूप हैं; पुनः जो भिन्न की क्रियाओं रूपी निर्भय गतिशील मछलियों से युक्त है और विविध प्रश्नों के अध्यायरूपी महाग्राह (मगर) से व्याप्त है। पुनः जो त्रैराशिक की अध्यायरूपी लहरों से आंदोलित है और मिश्र प्रश्नों के अध्याय-सम्बन्धी उत्कृष्ट भाषारूपी मोतियों की आभा से रंजित है, और पुनः जो क्षेत्रफल-सम्बन्धी प्रश्नों के अध्याय द्वारा पाताल तक विस्तृत है तथा घनफल के अध्याय रूपी रेत से पूर्ण है; और जो ज्योतिलोकीय व्यावहारिक गणना से सम्बन्धित छाया-सम्बन्धी अध्याय रूपी बढ़ते हुए ज्वार से चमकता है-(ऐसे ज्ञानसागर से ) सम्पूर्ण गण सम्पन्न गणितज्ञ गणित की सहायता से अपनी इच्छानुसार निर्मल मोती प्राप्त कर सकेंगे ॥२०-२३॥ इस विज्ञान के आरम्भ में आवश्यक पारिभाषिक शब्दावलि दी जाती है क्योंकि बिना शुद्ध परिभाषाओं के विषय तक पहुँच सम्भव नहीं है ॥२४॥