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________________ 20 गणितसारसंग्रह ( शलाका प्रमाण, Logarithm ),* राशि सिद्धान्त आदि जिनके आविष्कार यूरोप में सत्रहवीं और उन्नीसवीं सदी में हुए हैं। इस प्रकार "आवश्यकता, आविष्कार की जननी है', के आधार पर हम यह सम्भावना भी व्यक्त करते हैं कि वर्द्धमान महावीर के तीर्थ में उनके अनुयायियों द्वारा स्थानाऱ्या प्रतीक सहित दाशमिक पद्धति के अभाव की पूर्ति करने के प्रयास अवश्य ही किये गये होंगे। यूनानियों द्वारा बेबिलनवासियों के अंशदान का उपयोग सम्भवतः थेलीज़ द्वारा ग्रहण काल का बतलाया जाना पुष्ट करता है। बेबिलन में ग्रहणों के अवलोकन की तिथियाँ सम्भवतः ७४७ ई० पू० में हुए नबोनसार नृपति के काल में निश्चित हुई प्रतीत होती हैं। इसके पश्चात् ई० पू० ५८० में नेब्युकडनेज़र (द्वितीय) (Nebuchadnezzar II 605-562 B.C.) के राज्यकाल तक कला और विज्ञान में उन्नति तथा चंद्रमा और ग्रहों के अवलोकन के प्रमाण मिलते हैं। इसके पश्चात् उत्तरोत्तर काल में ज्योतिष के विकास के प्रमाण मिलते हैं। नेब्यकडनेज़र के सम्बन्ध में एक दो ऐसे तथ्य है जो हमें डा० प्राणनाथ विद्यालंकार द्वारा प्राप्त प्रभास पाटण के ताम्रपत्र के लेख, "बेबीलोन के नृपति नेबचंदनेजार ने रैवतगिरि के साथ नेमि के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था "tt की ओर आकर्षित करता है। ये तथ्य इस प्रकार हैं: "From his inscriptions we gather that Nebuchadrezzar was a man of peculiarly religious character”. "His peaceful energies were devoted to building magnificent palaces and temples and herein he excelled”. I परन्तु उपर्युक्त कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है, जिसके आधार पर हम भारत और बेबिलन का वर्द्धमान महावीर के तीर्थ से सम्बन्धित पुनर्जागरण से सम्बन्ध बतला सकें। इसके सम्बन्ध में भारतीय शिल्प और न्याय प्रणालिका की बेबिलन के शिल्प और न्याय प्रणाली से तुलना सम्भवतः उपयोगी सिद्ध हो । अभी तक उपलब्ध सामग्री के आधार पर गणित सम्बन्धी तुलना आदि हम अगले पृष्ठों में देंगे। बेबिलन के उच्च रूप से विकसित बीजगणित की सम्भाव्यता के विषय में यह प्रमाण दिया जाता है कि उनके पास उत्कृष्ट षाष्ठिक प्रतीक प्ररूपणा थी, जिससे संख्या और भिन्नों को दर्शाया जा सकता था, और उनमें समानसरलतापूर्वक गणनाएँ की जा सकती थीं। इस प्रकार उन्हें एक तथा दो अज्ञात वाले रैखीय और वर्ग समीकरणों के हल करने की रीति ज्ञात थी। इनके सिवाय (अ+ब)२ जैसे बीजीय सूत्रों का ज्यामितीय प्ररूपण, समान्तर रेखाओं से उदयभूत अनुपात के सम्बन्ध, पिथेगोरसका साध्य, त्रिभुज और समलम्ब चतुर्भुज का क्षेत्रफल आदि का ज्ञान सम्भवतः उन्हें पूर्व प्रचलित परम्परा से था। संख्यासिद्धान्त में श्रेढियों का संकलन भी दृष्टिगत होता है । परन्तु यह सब ज्ञान पिथेगोरस को धर्म और दर्शन में गणित के * टोडरमल ने अर्थसंदृष्टि में अर्थ को द्रव्य,क्षेत्र, काल और भाव का प्रमाण निरूपित किया है। tt अथवा नेब्युकडरेज़र Cf. Encyclopaedia Britannica, vol. 16, p. 184 ( 1956 ). ___ मु. कांतिसागर, श्रमण संस्कृति और कला, पृ. ५७ (१९५२ ); खंडहरों का वैभव, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, पृ. ११(१९५३); तथा Times of India, 19-3-1935. + Encyclopaedia Britannica, Vol. 16, p. 185, ( 1956). +J. B. Bury & others, The Cambridge Ancient History, P. 216, Vol. III, 1 (964).
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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