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________________ ९. छायाव्यवहारः शान्तिर्जिनः शान्तिकरः प्रजानां जगत्प्रभुतिसमस्तभावः । यः प्रातिहार्याष्टविवर्धमानो नमामि तं निर्जित शत्रुसंघम् ॥ १ ॥ ____ आदी प्राच्याद्यष्टदिक्साधनं प्रवक्ष्यामःसलिलोपरितलवस्थितसमभूमितले लिखेद्वत्तम् । बिम्बं स्वेच्छाशङ्कद्विगुणितपरिणाहसूत्रेण ।। २।। तद्वत्तमध्यस्थतदिष्टंशङ्कोश्छाया दिनादौ च दिनान्तकाले । तद्वृत्तरेखां स्पृशति क्रमेण पश्चात्पुरस्ताच्च ककुप् प्रदिष्टा ।। ३॥ तदिग्द्वयान्तर्गततन्तुना लिखेन्मत्स्याकृति याम्यकुबेरदिकस्थाम् । तत्कोणमध्ये विदिशः प्रसाध्याश्छायैव याम्योत्तरदिग्दशार्धजाः ॥ ४॥ 1. M में तत्वः पाठ है। ९. छाया व्यवहार ( छाया संबंधी गणित ) जो प्रजा को शांति कारक हैं (शांति देने वाले हैं ), जगत्प्रभु हैं, समस्त पदार्थों को जाननेवाले हैं, और अपने आठ प्रातिहार्यों द्वारा (सदा) वर्धमान (महनीय) अवस्था को प्राप्त हैं-ऐसे (कर्म) शत्रु संघ के विजेता श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥ आदि में, हम प्राची (पूर्व ) दिशा को आदि लेकर, आठ दिशाओं के साधन करने के लिए उपाय बतलाते हैं पानी के ऊपरी सतह की भाँति, क्षैतिज समतल वाली समतल भूमि पर केन्द्र में स्थित स्वेच्छा से चुनी हुई लंबाई वाली शंकु लेकर, उसकी लंबाई को द्विगुणित राशि की लंबाई वाले धागे के फन्दे (loop) की सहायता से एक वृत्त खींचना चाहिये ॥ २ ॥ इस केन्द्र में स्थित इष्ट शंकु की छाया दिन के आदि में तथा दिन के अन्त समय में उस वृत्त की परिधि को स्पर्श करती है । इसके द्वारा, क्रम से, पश्चिम दिशा और पूर्व दिशा सूचित होती है ॥३॥ इन दो निश्चित की गई दिशाओं की रेखा में धागे को रखकर, उसके द्वारा उत्तर से दक्षिण तक विस्तृत मत्स्याकार (संतरे की कली के समान ) आकृति खींचना चाहिए। इस मत्स्याकृति के कोणों के मध्य से जाने वाली सरल रेखा उत्तर और दक्षिण दिशाओं को सूचित करती है । इन दिशाओं के मध्य में (स्थित जगह में ) विदिशायें प्रसाधित की जाती हैं ॥४॥ (४) वह धागा जिसकी सहायता से मत्स्याकार आकृति खींची जाती है, गाथा २ में दिये
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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