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________________ [२३१ -७. १६८३] क्षेत्रगणितव्यवहारः अत्रोद्देशकः गणितं सूक्ष्मं पञ्च त्रयोदश व्यावहारिकं गणितम् । द्विसमचतुरश्रभूमुखदोषः के षोडशेच्छा च ॥ १६६३ ।। त्रिसमचतुरश्रस्योदाहरणम् । गणितं सूक्ष्म पश्च त्रयोदश व्यावहारिकं गणितम् । त्रिसमचतुरश्रवाहून संचिन्त्य सखे ममाचक्ष्व ॥ १६७३ ॥ व्यावहारिकस्थूलफलं सूक्ष्मफलं च ज्ञात्वा तव्यावहारिकस्थूलफलवत् सूक्ष्मगणितफलवत्समत्रिभुजानयनस्य च समवृत्तक्षेत्रव्यासानयनस्य च सूत्रम्धनवर्गान्तरमूलं यत्तन्मूलाद्विसंगुणितम् । बाहुस्त्रिसमत्रिभुजे समस्य वृत्तस्य विष्कम्भः ॥ १६८३ ॥ ओं वाले चतुर्भुज क्षेत्रको सन्निकट क्षेत्रफल का माप, मन से चुनी हुई राशि द्वारा भाजित होकर, भुजाओं के मान को उत्पन्न करता है। तीन बराबर भुजाओं वाले चतुर्भज क्षेत्र की दशा में, ऊपर बतलाये हए दो क्षेत्रफलों के वर्गों के अंतर के वर्गमूल को क्षेत्रफल के सन्निकट माप में जोड़ते हैं। इस परिणामी योग को विकल्पित राशि मानकर उसमें ऊपर बतलाये हुए वर्गमूल को जोड़ते हैं । पुनः, उसी विकल्पित राशि में से उक्त वर्गमूल को घटाते हैं । इस प्रकार प्राप्त राशियों में वर्गमूल का भाग अलग-अलग देकर, आधार और ऊपरी भुजा प्राप्त करते हैं। यहाँ भी क्षेत्रफल के व्यावहारिक माप को इस विकल्पित राशि के वर्गमूल द्वारा भाजित करने पर अन्य भुजाओं के माप प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ प्रश्न सूक्ष्म क्षेत्रफल का माप ५ है, क्षेत्रफल का सन्निकट माप १३ है, और मन से चुनी हुई राशि १६ है। दो बराबर भुजाओं वाले चतुर्भुज क्षेत्र के संबंध में आधार, ऊपरी भुजा और अन्य भुजा के मान क्या-क्या हैं ? ॥ १६६३ ॥ तीन बराबर भुजाओं वाले चतुर्भुज क्षेत्र संबंधी एक उदाहरण क्षेत्रफल का सूक्ष्म रूप से शुद्ध माप ५ है, और क्षेत्रफल का व्यावहारिक माप १३ है । हे मित्र, सोचकर मुझे बतलाओ कि तीन बराबर भुजाओं वाले चतुर्भुज क्षेत्र की भुजाओं के माप क्या-क्या हैं ? ॥ १६७३॥ ____ समत्रिबाहु त्रिभुज और समवृत्त के व्यास को प्राप्त करने के लिये नियम, जब कि उनके व्यावहारिक और सूक्ष्म क्षेत्रफल के माप ज्ञात हों क्षेत्रफल के सन्निकट और सूक्ष्म रूप से ठीक मापों के वर्गों के अंतर के वर्गमूल के वर्गमूल को २ द्वारा गुणित किया जाता है। परिणाम, इष्ट समत्रिभुज की भुजा का माप होता है। वह, इष्ट वृत्त के व्यास का माप भी होता है ॥ १६८३ ॥ (१६८३) किसी समबाहुत्रिभुज के व्यावहारिक और सूक्ष्म क्षेत्रफल के मानों के लिये इस अध्याय की गाथा ७ और ५० के नियमों को देखिये ।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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