SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७. क्षेत्रगणित व्यवहारः सिद्धेभ्यो निष्ठितार्थेभ्यो वरिष्ठेभ्यः कृतादरः । अभिप्रेतार्थसिद्धयर्थं नमस्कुर्वे पुनः पुनः ॥१॥ इतः परं क्षेत्रगणितं नाम षष्ठगणितमुदाहरिष्यामः । तद्यथाक्षेत्रं जिनप्रणीतं फलाश्रयाद्वयावहारिक सूक्ष्ममिति ।। भेदाद् द्विधा विचिन्त्य व्यवहारं स्पष्टमेतदभिधास्ये ॥२॥ त्रिभुजचतुर्भजवृत्तक्षेत्राणि स्वस्वभेदभिन्नानि । गणिताणवपारगतैराचार्यैः सम्यगुक्तानि ॥३॥ त्रिभुज त्रिधा विभिन्नं चतुर्भुजं पञ्चधाष्टधा वृत्तम् । अवशेषक्षेत्राणि ह्येतेषां भेदभिन्नानि ॥४॥ त्रिभुजंतु समं द्विसमं विषमं चतुरश्रमपि समं भवति । द्विद्विसमं द्विसमं स्यात्रिसमं विषमं बुधाः प्राहुः ॥५॥ समवृत्तमर्धवृत्तं चायतवृत्तं च कम्बुकावृत्तम् । निम्नोन्नतं च वृत्तं बहिरन्तश्चक्रवालवृत्तं च ।। ६ ।। ७. क्षेत्र-गणित व्यवहार (क्षेत्रफल के माप सम्बन्धी गणना ) अपने इष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये मैं मन, वचन, काय से कृतकृत्य और सर्वोत्कृष्ट सिद्धों को वारंवार सादर नमस्कार करता हूँ ॥१॥ इसके पश्चात् हम क्षेत्र गणित नामक विषय की छः प्रकार की गणना की व्याख्या करेंगे जो निम्नलिखित है जिन भगवान ने क्षेत्रफल का दो प्रकार का माप प्रणीत किया है, जो फल के स्वभाव पर आधारित है; अर्थात् एक वह जो व्यावहारिक प्रयोजनों के लिये अनुमानतः लिया जाता है, और दूसरा वह जो सूक्ष्म रूप से शुद्ध होता है। इसे विचार में लेकर मैं इस विषय को स्पष्ट रूप से समझाऊँगा ॥२॥ गणित रूपी समुद्र के पारगामी आचार्यों ने सम्यक ( ठीक ) रूप से विविध प्रकार के क्षेत्रफलों के विषय में कहा है। उन क्षेत्रफलों में त्रिभुज, चतुर्भुज और वृत्त ( वक्ररेखीय ) क्षेत्रों को इन्हीं क्रमवार प्रकारों में वर्णित किया है ॥ ३॥ त्रिभुज क्षेत्र को तीन प्रकार में, चतुर्भुज को पाँच प्रकार में, और वृत्त को आठ प्रकार में विभाजित किया गया है। शेष प्रकार के क्षेत्र वास्तव में इन्हीं विभिन्न प्रकारों के क्षेत्रों के विभिन्न भेद हैं ॥ ४॥ बुद्धिमान लोग कहते हैं कि त्रिभुज क्षेत्र, समत्रिभुज, द्विसम त्रिभुज ( समद्विबाहु त्रिभुज ) और विषम त्रिभुज हो सकता है, और चतुर्भुज क्षेत्र भी समचतुरश्र (वर्ग), द्विद्विसमचतुरश्र (आयत), द्विसमचतुरश्र (समलम्ब चतुर्भुज जिसकी दो असमानान्तर भुजायें बराबर नापकी हों), त्रिसमचतुरश्च (समलम्ब चतुर्भुज, जिसकी तीन भुजायें बराबर नापकी हों), विषम चतुरश्च ( साधारण चतुर्भुज क्षेत्र ) हो सकता है ॥५॥ वक्रसरल क्षेत्र, समवृत्त (वृत्त), अवृत्त, आयतवृत्त (उनेन्द्र अथवा अंडाकार क्षेत्र ), कम्बुकावृत्त (शंखाकार क्षेत्र), निम्नावृत्त ( नतोदर वृत्तीय क्षेत्र), उन्नतावृत्त (उन्नतोदर वृत्तीय क्षेत्र), बहिश्चक्रवाल वृत्त (बाहर स्थित करण), एवं अंतश्चक्रवाल वृत्त (भीतर स्थित करण) हो सकता है ॥६॥ (५-६) इन गाथाओं में कथित विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ अगले पृष्ठ पर दर्शाई गई हैं
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy