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________________ गणितसारसंग्रहः अत्रोद्देशकः नवयोजनानि कश्चित्प्रयाति योजनशतं गतं तेन । प्रतिदूतो व्रजति पुनस्त्रयोदशाप्नोति कैर्दिवसैः || ३२७३॥ विषमबाणैस्तूणीरवाणपरिधिकरणसूत्रम् - परिणाहस्त्रिभिरधिको दलितो वर्गीकृत स्त्रिभिर्भक्तः । सैकः शरास्तु परिघेरानयने तत्र विपरीतम् || ३२८३॥ अत्रोद्देशकः १७६ ] नव परिधिस्तु शराणां संख्या न ज्ञायते पुनस्तेषाम् । त्र्युत्तरदशबाणास्तत्परिणाहशरांश्च कथय मे गणक || ३२९३ || ढोबद्धे इष्टकानयनसूत्रम् - तरवर्गो रूपोनस्त्रिभिर्विभक्तस्तरेण संगुणितः । तर संकलिते स्वेष्टप्रताडिते मिश्रतः सारम् ||३३०३ ॥ उदाहरणार्थ प्रश्न कोई व्यक्ति ९ योजन प्रतिदिन की गति से यात्रा करता है। उसके द्वारा १०० योजन की दूरी पहिले ही तय की जा चुकी है। एक संदेशवाहक उसके पीछे १३ योजन प्रति दिन की गति से भेजा गया । यह कितने दिनों में उससे जाकर मिलेगा ? तरकश में भरे हुए ज्ञात अयुग्म संख्या के शरों की सहायता से तरकश के शरों की परिध्यानसंख्या निकालने के लिये ( तथा विलोम क्रमेण ) नियम ॥३२७३ ॥ परिध्यान शरों की संख्या को ३ द्वारा बढ़ाकर आधा किया जाता है। इसे वर्गित किया जाता है, और तब ३ द्वारा भाजित किया जाता है। इस परिणामी राशि में १ जोड़ने पर तरकश के शरों की संख्या प्राप्त होती है । जब परिध्यान शरों की संख्या निकालनी होती है, तो विपरीत क्रिया करनी पड़ती है ।। ३२८३ ।। उदाहरणार्थ प्रश्न शरों की परिध्यान संख्या ९ है । उनकी कुल संख्या अज्ञात है । वह कौन सी है ? तरकश में कुल शरों की संख्या १३ है । हे गणितज्ञ, परिध्यान शरों की संख्या बतलाओ || ३६९३ ।। किसी भवन की श्रेणीबद्ध ( एक के ऊपर दूसरी ) इष्टकाओं ( ईंटों) की संख्या निकालने के लिये नियम सतहों की संख्या के वर्ग को १ द्वारा हासित कर ३ द्वारा भाजित किया जाता है, और तब सतहों की संख्या द्वारा गुणित किया जाता है। इस प्रकार प्राप्त राशि में वह गुणनफल जोड़ते हैं, जो सबसे ऊपर की सतह की ईंटों को प्ररूपित करनेवाली ( मन से चुनी हुई ) संख्या और एक से आरंभ होकर दी गई सतहों की संख्या तक की प्राकृत संख्याओं के योग का गुणन करने से प्राप्त होता इष्ट उत्तर होता है ||३३०२ ॥ । प्राप्तफल (३३०३) बीजीय रूप से, न २ [ ६.३२७ ३ संख्या है; जहाँ 'न' सतहों की संख्या है, न ( न + १) २ , यह, बनावट की कुल ईंटों की और 'अ' सर्वोच्च सतह में ईंटों की मन से चुनी हुई संख्या है । X न + अ x
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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