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________________ -६. २७४३] मिश्रकव्यवहार [१६१ शेषैक्यायुतोनिता फलमिदं राशिर्भवेद्वाञ्छयोस्त्याज्यात्याज्यमहत्त्वयोरथ कृतेमूलं ददात्येव सः ।। २७५३ ।। अत्रोद्देशक: राशिः कश्चिद्दशभिः संयुक्तः सप्तदशभिरपि हीनः । मूलं ददाति शुद्धं तं राशि स्यान्ममाशु वद गणक ।। २७६३ ।। राशिः सप्तभिरूनो यः सोऽष्टादशभिरन्वितः कश्चित् । मूलं यच्छति शुद्धं विगणय्याचक्ष्व तं गणक ॥२७७३ ।। राशिव॑ित्र्यंशोनत्रिसप्तभागान्वितस्स एव पुनः। मूलं यच्छति कोऽसौ कथय विचिन्त्याशु तं गणक ।। २७८३ ।। है। परिणामी राशि को क्रमशः ऐसी दो राशियों के आधे अन्तर में जोड़ा जाता है, अथवा अर्द्ध अंतर में से घटाया जाता है, जिन्हें कि अयुग्म बनानेवाली अतिरेक राशि द्वारा उन दशाओं में हासित किया जाता है अथवा बढ़ाया जाता है, जब कि घटाई जानेवाली दी गई मूल राशि जोड़ी जानेवाली दी गई मूल राशि से बड़ी अथवा छोटी होती है। इस प्रकार प्राप्त फल वह संख्या होती है, जो दत्त राशियों से इच्छानुसार सम्बन्धित होकर, निश्चित रूप से वर्गमूल को उत्पन्न करती है ।। २७५३ ॥ उदाहरणार्थ प्रश्न कोई संख्या जब १० से बढ़ाई अथवा १७ से घटाई जाती है, तब वह यथार्थ वर्गमूल बन जाती है। यदि सम्भव हो तो, हे गणितज्ञ, मुझे शीघ्र ही वह संख्या बतलाओ ।। २७६३ ॥ कोई राशि जब ७ द्वारा हासित की जाती है अथवा १८ द्वारा बढ़ाई जाती है, तो वह यथार्थ वर्गमूल बन जाती है । हे गणक ! उस संख्या को गणना के पश्चात् बतलाओ ॥ २७७३ ॥ कोई राशि द्वारा हासित होकर, अथवा द्वारा बढ़ाई जाकर यथार्थ वर्गमूल उत्पन्न करती है । हे गणक, सोचकर शीघ्र ही वह सम्भव संख्या बतलाओ ॥ २७८३। ४ (२७५३ ) बीजीय रूप से, मानलो निकाली जानेवाली राशि क है, और उसमें जोडी जानेवाली अथवा उसमें से घटाई जानेवाली राशियां क्रमशः अ, ब है, तब इस नियम का निरूपण करनेवाला सूत्र निम्नलिखित होगा* { { (अ + ब) ४ (१+१)* २१२ - १ } + १ + अ + १; इसका मूलभूत सिद्धान्त इस प्रकार निकाला जा सकता है । (न + १)२ - न = २ न + १ जो अयुग्म संख्या है; और (न + २)२ - न=४न+४ जो युग्म संख्या है। जहाँ 'न' कोई भी पूर्णाक है। नियम बतलाता है कि हम २न+१ और ४न+ ४ से किस प्रकार न+अ प्राप्त कर सकते हैं, जब कि हम जानते हैं कि रन +१ अथवा ४न+४ को अ+ब के बराबर होना चाहिये। (२७८१ ) गाथा २७५१ के नोट में ब और अ द्वारा निरूपित संख्यायें (जो वास्तव में ३ और है), इस प्रश्न में भिन्नीय होने के कारण, यह आवश्यक है कि दिये गये नियम के अनुसार उन्हें * इसे रंगाचार्य ने निम्न प्रकार दिया है जो नियम से नहीं मिलता है। { (a+by+{1+ 1) + २ }-1+1+arbal ग० सा० सं०-२१
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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