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________________ १२६] गणितसारसंग्रहः [ ६. १३८३ पश्चत्रिंशत् व्युत्तरषोडशपदान्येव हाराश्च । द्वात्रिंशद्व्यधिकैका व्युत्तरतोऽग्राणि के धनर्णगुणाः ।। १३८३ ।। में ३ द्वारा बढ़ती हुई हैं, दत्त भाज्यगुणक हैं । दिये गये भाजक, ३२ ( और अन्य ) हैं, जो उत्तरोत्तर २ द्वारा बढ़ते जाते हैं । और, १ को उत्तरोत्तर ३ द्वारा बढ़ाते जाने पर ज्ञात धनात्मक और ऋणात्मक सम्बन्धित राशियाँ उत्पन्न होती हैं । ज्ञात भाज्य-गुणक के अज्ञात गुणनखण्डों के मान क्या हैं जबकि वे धनात्मक या ऋणात्मक ज्ञात संख्याओं के साथ योगरूप से सम्बन्धित हैं ? ॥ १३८३ ॥ में दिये गये मूलभूत सिद्धान्त में अयुग्म स्थिति क्रम वाले शेष के साथ सम्बन्धित अग्र ब का बीजीय चिन्ह वही है जो इस प्रश्न में दिया गया है, परन्तु युग्म स्थिति क्रमवाले शेष के साथ सम्बन्धित अग्र व का चिन्ह प्रश्न में जैसा दिया गया है उसके विपरीत है; इसलिये जब अयुग्म स्थिति क्रमवाले, शेष तक लगातार भाजन किया जाता है तब प्राप्त क का मान उस अग्र के सम्बन्ध में होता है जिसका चिन्ह अपरिवर्तित है। और दूसरी ओर, जब लगातार भाजन युग्म स्थिति क्रमवाले शेष तक ले जाया जाता है तब वहाँ से प्राप्त क का मान उस अग्र के सम्बन्ध में होता है जिसका चिन्ह परिवर्तित है । जब प्राप्त शेषों की संख्या अयुग्म होती है, तब श्रृंखला में भजनफलों की संख्या युग्म होती है; और जब शेषों की संख्या युग्म होती है, तब श्रृंखला में भजनफलों की संख्या अयुग्म होती है। कारण यह है कि इस नियम में अन्तिम शेष से सम्बन्धित अग्र हमेशा धनात्मक लिया जाता है, इसलिये इस धनात्मक अग्र के सम्बन्ध में क का मान प्राप्त होता है जब कि अंतिम शेष अयुग्म स्थिति क्रममें हो। वह ऋणात्मक अग्र के सम्बन्ध में तब प्राप्त होता है जब कि अंतिम शेष युग्म स्थिति क्रम में हो। दूसरे शब्दों में, यदि भजनफलों की संख्या युग्म हो, तब धनात्मक अग्र सम्बन्धी मान प्राप्त होता है; और जब भजनफलों की संख्या अयुग्म हो, तब ऋणात्मक अग्र सम्बन्धी मान प्राप्त होता है। इस प्रकार, धनात्मक और ऋणात्मक अग्रों के सम्बन्ध में क का मान प्राप्त करने पर दूसरा मान, इस मानको प्रश्न के भाजक में से घटाकर प्राप्त करते हैं। यह निम्नलिखित निरूपण से स्पष्ट हो जावेगा:- 4-एक पूर्णाक । यहाँ मानलो क=ष: तब, : न आष+ब - - = एक पूर्णांक । हम बा जानते हैं कि भा भी एक पूर्णाक है । इसलिये बाबा जानते हैं कि आबा सीपको आबा - आष + बा आ (बा-ष)-ब. " ' बा एक पूर्णाक है । यहाँ यह देखने योग्य है, कि तीनों दी गई संख्यात्मक राशियों के साधारण गुणनखंडों को लगातार भाजन के आरम्भ करने के पूर्व ही हटा देते हैं । अंतिम भाजक और अंतिम शेष बराबर होना चाहिये इसलिये इन में से प्रत्येक १ होता है । 'मति' जिसे वल्लिका कुट्टीकार के सम्बन्ध में नियमानुसार चुनना पड़ता है, और भजनफलों की श्रृंखला के नीचे लिखना पड़ता है, वह इस नियम में हमेशा १ रहती है। अंतिम भाजक भी १ होता है। इसलिये वल्लिका कुट्टीकार में 'मति' यहाँ अंतिम भाजक का स्थान ले लेती है। इसके बाद देखा जायगा कि इस नियम द्वारा प्राप्त अंखला का अंतिम अंक (१+ अग्र) उतना ही रहता है जितना कि वल्लिका कुट्टीकार में प्राप्त श्रृंखला का अंतिम अंक । यह अंतिम अंक, अंतिम भाजक को अग्र तथा मति और अंतिम शेष के गुणनफल के योग द्वारा विभाजित करने पर प्राप्त करते हैं । यथा, अंतिम अंक = [ अंतिम भाजक ] + { अग्र+(मति ४ अंतिम शेष )} बा
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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