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________________ १०६ ] गणित सारसंग्रहः [ ६.७० सैकार्धकपञ्चार्धकषडर्धकाशीतियोगयुक्तास्तु । मासष्ट षडधिका चत्वारिंशच्च षट्कृतिशतानि ॥ ७० ॥ संकलितस्कन्धमूलस्य मूलवृद्धिविमुक्तिकालनयनसूत्रम् — स्कन्धाप्तमूलचितिगुणितस्कन्धेच्छाग्रघातियुतमूलं स्यात् । स्कन्धे कालेन फलं स्कन्धोद्धृतकालमूलहतकालः ॥ ७१ ॥ अत्रोद्देशकः केनापि संप्रयुक्ता षष्टिः पञ्चकशतप्रयोगेण । मास त्रिपञ्चभागात् सप्तोत्तरतश्च सप्तादिः ॥ ७२ ॥ तत्षष्टिसप्तमांशकपदमितिसंकलितधनमेव । दत्त्वा तत्सप्तांशकवृद्धिं प्रादाच्च चितिमूलम् ॥ किं तद्वृद्धिः का स्यात् कालस्तदृणस्य मौक्षिको भवति ।। ७३३ ॥ उत्पन्न हुए व्याजों को मूलधनों में जोड़ने पर देखा जाता है कि वे बराबर हो जाते हैं । उन विनियोजित रकमों को निकालो ॥ ७० ॥ समान्तर श्रेढि बद्ध किस्तों द्वारा चुकाई गई ऋण की रकम के सम्बन्ध में धन, ब्याज और ऋण मुक्ति का समय निकालने के लिये नियम इष्ट ऋण धन वह मूलधन है जो मन से चुनी हुई ( महत्तम प्राप्य किस्त की ) रकम और श्रेढि के पदों की संख्या के भिन्नीय भाग के गुणनफल को ( १ जिसका प्रथम पद है, १ प्रचय है और उपर्युक्त महत्तम ऋण की रकम को प्रथम किस्त द्वारा विभाजित करने से प्राप्त पूर्णाङ्क मान वाली संख्या ( भजनफल ) जिसके पदों की संख्या है, ऐसी ) समान्तर श्रेढि द्वारा गुणित प्रथम किस्त से मिलाने पर प्राप्त होता है । ब्याज वह है जो किस्त की अवधि में उत्पन्न होता है । किस्त की अवधि को प्रथम fara द्वारा विभाजित करने और मन से चुनी हुई ऋण की महत्तम रकम द्वारा गुणित करने पर जो प्राप्त होता है वह ऋण मुक्त होने का समय है ॥ ७१ ॥ उदाहरणार्थ प्रश्न एक मनुष्य ने ५ प्रतिशत प्रतिमाह की दर से ब्याज लगाये जाने वाले ऋण की मुक्ति के लिये ६० को महत्तम रकम चुना तथा ७ प्रथम किस्त चुनी जो उत्तरोत्तर माह में होनेवाली किस्तों में ७ द्वारा बढ़ती चली गई । इस प्रकार, उसने - पदों वाली समान्तर श्रेढि के योग को ऋण रूप में चुकाया तथा उन ७ के अपवय ( multiples ) पर लगने वाले ब्याज को भी चुकाया । श्रेढि के योग की संवादी ऋण रकम को निकालो, चुकाये गये व्याज को निकालो और बतलाओ कि उस ऋण की मुक्ति का समय क्या है ? ॥ ७२-७३३ ॥ किसी मनुष्य ने ५ प्रतिशत प्रतिमास व्याज की दर लगाये जाने 1 अथवा ८ होती है जिसमें से ८ ( ७१ ) यह नियम ( कई शब्द छूट जाने के कारण ) अत्यन्त भ्रमोत्पादक है तथा ७२ - ७३३ वीं गाथा के उदाहरण हल करने पर स्पष्ट हो जावेगा । यहाँ मूल अथवा किस्त की महत्तम प्राप्य रकम ६० है । यह प्रथम किस्त की रकम ७ द्वारा विभाजित होने पर समान्तर श्रेढि के पदों की संख्या है। ऐसी समान्तर श्रेटि का १ प्रथम पद है, १ प्रचय है और अग्र अथवा ऊपर का भिन्नीय भाग है। उपर्युक्त भेटि के योग ३६ को प्रथम किस्त ७ द्वारा गुणितकर उ और ६० के गुणनफल में जोड़ देते हैं । यहाँ ६० महत्तम प्राप्य रकम है । इस प्रकार ३६×७+ × ६० = ३४ प्राप्त होता है जो ऋण का इष्ट मूलधन है । माह में ५ प्रतिशत प्रतिमाह की दर पूर्ण पर चुकाया गया ब्याज होगा । ऋण मुक्ति की अवधि ( ७ ) ६० = माह होगी । पर
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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