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________________ ५२] गणितसारसंग्रहः [३.७४अत्रोद्देशकः नवकदशैकादशहृतराशीनां नवतिनवशतोभक्ता । त्र्यूनाशीत्यष्टशती संयोगः केंऽशकाः कथय ॥७४।। छेदोत्पत्तौ सूत्रम्रूपांशकराशीनां रूपाद्यास्त्रिगुणिता हराः क्रमशः । द्विद्वित्र्यंशाभ्यस्तावादिमचरमौ फले रूपे ॥७५। उदाहरणार्थ प्रश्न ९, १० और ११ द्वारा क्रमशः विभाजित की गई कुछ संख्याओं का योग ८७७ भाजित ९९० है। बतलाओ कि भिन्नों को जोड़ने की इस क्रिया में अंश क्या क्या हैं ? ॥७॥ चाहे हुए हरों को निकालने के लिये नियम 'एक' अंश वाली विभिन्न भिन्नीय राशियों का योग जब 'एक' हो, तब चाहे हुए हर एक से आरम्भ होकर क्रमवार, उत्तरोत्तर ३ से गुणित किये जाते हैं, इस तरह प्राप्त प्रथम और अंतिम हर फिर से क्रमशः २ और ३ द्वारा गुणित किये जाते हैं ॥७५।। प्रत्येक दिये गये हरों के सम्बन्ध में अंश को एक मानकर तथा भिन्नों को समान हरों में प्रवासित करने पर १५०, १११ और २९१. प्राप्त होते हैं । दिये गये योग ६६४ को इन भिन्नों के योग ३३० द्वारा विभाजित करने पर हमें भजनफल २ प्राप्त होता है जो प्रथम हर सम्बन्धी अंश है। इस भाग में प्राप्त शेष, २७९, को शेष माने हुए अंशों के योग १८९ द्वारा विभाजित करते हैं जिससे भजनफल १ प्राप्त होता है। इस भजनफल १ को प्रथम भिन्न के अंश २ में जोड़ने पर द्वितीय हर सम्बन्धी अंश प्राप्त हो जाता है । इस दूसरे भाग के शेष ९० को अंतिम भिन्न के माने हुए अंश ९० के द्वारा विभाजित करते हैं, और प्राप्त भजनफल १ को जब पिछले भिन्न के अंश ३ में जोड़ते हैं तब अंतिम हर का अंश प्राप्त होता है । इसलिये, वे भिन्न, जिनका योग ६३४ है, ये हैं:-, . और . यहाँ इस तरह उत्तरोत्तर निकाले गये अंश क्रमबद्ध दिये गये हरों के सम्बन्ध में चाहे हुए अंश बन जाते हैं। बीजीय रूप से भी, तीन भिन्नों का योगबसक+(क+१) अस + ( क +२) अब है और हर अ, ब और स हैं। इनके अंश इस अबस विधि से क, क + १ और क+ २ सरलता से निकाले जा सकते हैं। (७५) उपर्युक्त प्रदर्शित रीति द्वारा प्रश्न को हल करने से यह ज्ञात होगा कि जब न भिन्न हों, तो प्रथम और अन्तिम भिन्न को छोड़कर (न-२) पद गुणोत्तर श्रेदि में होते हैं जिसका प्रथमपद और साधारण निष्पत्ति (common ratio) होती है। (न-२) पदों का योग ११-(३) }/(१-५) होता है जो प्रहासित करने पर ३-३ इनर अथवा, के तुल्य होता है। इससे स्पष्ट है कि जब प्रथम भिन्न हो तो अन्तिम भिन्न 25 को इस अन्तिम फल में जोड़ने पर योग १ हो जाता है। इस सम्बन्ध में, न पदों वाली
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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