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________________ ३. ७३ ] कलासवर्णव्यवहारः त्र्यधिका सप्ततिरस्मात्सपञ्चपञ्चाशदपि च सा द्विगुणा । सप्तकृतिः सचतुष्का सप्ततिरेकोनविंशतिद्विशतम् ॥७०॥ हा निरूपिता अंशा एकाद्येकोत्तरा अमूनन् । प्रक्षिप्य फलमाचक्ष्व भोगजात्यब्धिपारंग ॥ ७१ ॥ अत्रांशोत्पत्तौ सूत्रम् - एकं परिकल्प्यांशं तैरिष्टैः समहरांशकान् हन्यात् । यहुणितांशसमासः फलसदृशोंऽशास्त एवेष्टा ॥७२॥ ऐकांशवृद्धीनां राशीनां युतावंशाद्धारस्याधिक्ये सत्यंशोत्पादक सूत्रम् - समहारैकांशकयुतिहृतयुत्थंशोंऽश एक वृद्धीनाम् । शेषमितरांशयुतिहृतमन्यांशोऽस्त्येवमा चरमात् ॥७३॥ १ B प्रोत्तीर्णगणितार्णव । २ B सदृशवृद्धयंशराशीनां अंशोत्पादक सूत्रम् । [ ५१ अंश १ से आरम्भ होकर उत्तरोत्तर क्रमवार १ द्वारा बढ़ते चले जाते हैं । इस सब भिन्नों को जोड़कर, हे भिन्न रूपी महासागर के उसपार पहुँचनेवाले, योगफल को बतलाओ ॥६७-७१॥ जब भिन्नों के हर तथा योग दिये गये हों तो अंश निकालने के लिये नियम सब दिये गये हरों के सम्बन्ध में अंश को 'एक' बनाओ; तब किसी भी तरह चुनी हुई संख्याओं द्वारा साधारण हरों में लाये गये अंशों को गुणित करो। यहां वे संख्यायें चाहे हुए अंशों में बदल जाती हैं, जिनका योग संबंधित भिन्नों के योग के बराबर होता है ॥ ७२ ॥ जब भिन्नों के योग का हर अंश से बड़ा हो और अंश उत्तरोत्तर एक द्वारा बढ़ते चले जाते हों, तो ऐसे भिन्नों के सम्बन्ध में अंशों के निकालने के लिये नियम सम्बन्धित भिन्नों के दिये गये योग को तथा जिनके अंश 'एक' होते हैं ऐसे भिन्नों को साधारण हरों में प्रासित कर लिया जाता है । भिन्नों के दिये गये योग को ऐसे भिन्नों के योग द्वारा भाजित करने से प्राप्त भजनफल उन अंशों में से प्रथम चाहा हुआ अंश बन जाता है । इसके पश्चात् के इष्ट अंश उत्तरोत्तर एक द्वारा बढ़ते चले जाते हैं और जिन्हें निकाला जा सकता है। इस भाग में प्राप्त शेषफल को समान हर वाले अन्य अंशों द्वारा विभाजित करने पर, परिणामी भजनफल दूसरा चाहा हुआ अंश बन जाता है जब कि वह प्रथम में जो कि पहिले ही प्राप्त हो चुका है, जोड़ दिया जाय । इस तरह अंत तक प्रश्न का साधन करना पड़ता है ॥ ७३ ॥ के सम्बन्ध में अंश एक मान लिया जाता है; इस तरह हमें प्रहासित किये जाने पर करते हैं तो इस तरह प्राप्त गुणनफलों का इसलिये, २, ३, और ४ चाहे हुए अंश हैं। जितना कि भिन्नों का साधारण हर है । (७२) सूत्र ७४ के प्रश्न को हल करने से यह नियम स्पष्ट हो जावेगा । यहाँ प्रत्येक दिये गये हर प्राप्त होते हैं जो एक से हरों में हो जाते हैं । जब अंशों को क्रमवार २, ३ और ४ से गुणित योग दिये गये योग का अंश ( ८७७ ) हो जाता है । आलोकनीय है, कि इस दिये गये योग का हर उतना है ( ७३ ) इस नियम के अनुसार ७४ वीं गाथा का प्रश्न इस प्रकार साधित होता है
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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