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तुम्हारी अंगूरी बाँहों के रभस- कातर मादंव में ऐसा प्रगाढ़ दवाब, आश्वासन और विश्वास है कि चिरकाल की प्रणवार्त आत्माएँ उनके अन्तिम आलिंगन को तड़पती हैं । तुम्हारे पाणि-पद्मों और उँगलियों की दुलार -पुचकार से जड़-चेतन सृष्टि का कण-कण प्रतिपल फलकाकुल है।
"ओ निखिल की परमेश्वरो रमणी, तुम्हारे वक्षाजी के कुलाचलं लोकालोक के गुरुत्वाकर्षण के ध्रुव केन्द्र हैं। सारी गतियाँ, प्रगतियाँ, प्रवाह, पौरुष, पराक्रम, प्रताप, विजयाकांक्षाएँ, चक्रवर्तित्व, ज्ञान, तप, तेज अपनी उपलब्धि की सीमा पर पहुँचकर भी जब प्यासे और विफलकाम होते हैं, तो वे तुम्हारे उरोज मण्डल के अगाध में विसर्जित हो जाना चाहते हैं। त्रिलोकजय के दुर्दान्त अभिमानी पौरुष, आत्महारा होकर तुम्हारे स्तनों के गहराव में अपनी अस्मिता खोजते हैं।
"तुम्हारी नाभि को रत्न - यापिका में उच्चादित और उन्मूलित आत्माएँ अपने अस्तित्व का मूल पाना चाहती हैं। तुम्हारी लचकीली कांटे की तनिमा मैं रति सदा मृणाल के हिण्डोले झूल रही है। तुम्हारी त्रिवली के रेखा बलयित त्रिकोण में कुलाचलों की अभेद्य अरण्यानियाँ एक दुर्भेद्य दुर्ग की रचना किये हुए हैं।...तुम्हारे ऊरुद्रव के सन्धि-मूल में वह जगम्य और अनतिक्रम्य चरम गुहा है, जिसके सुकाठिन्य, मार्दव और समाहिति में स्पर्श - सुख अपने अन्त पर पहुँचकर अनन्त की खोज में निकल पड़ता है। उस गुहा के अतल सरोबर में जो असंख्यात नील पांखुरियोंवाला श्रीकमल है, उसी में से यह अनादि अनन्त सृष्टि प्रवाहित है। अज्ञानी उस गुहा के परिसरवर्ती तमसारण्य में चिरकाल अशम्य प्यास की पीड़ा भोगते हुए भटकते रहते हैं। केवल परमज्ञानी पूषन् उस गुहा के अतलान्तों का भेदन कर लोकशीर्ष के सिद्धाचल पर आरोहण कर जाते हैं।
"तुम्हारे पृथुल नितम्बों के उभारों में सुमेरु पर्वत दोलायमान है। तुम्हारे प्रलम्ब करु-युगल की स्निग्ध भुजंगम घाटियों में मोह-यादेश की ऐसी गहरी कादम्ब वापियाँ हैं, कि उनमें डूबकर उन्हें पीकर आपा खो जाता है। रति का सुख वहाँ समाधि के सुख की सीमा स्पर्श करता हैं।
158 एक और नीलांजना
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