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भी ढल रही हैं।..."
"अहा, कैसी परम अनुग्रहवती हैं, अनुकम्पावती हैं, भगवती हैं भगवतो मरुदेवी । कर्मभूमि के आद्य विधाता की जगदीश्वरी, परमेश्वरी जनेता ! अनुभव कर रहा हूँ, उन माँ को कृपा इस क्षण अमृत के समुद्र की तरह चारों ओर से उमड़कर मुझे नहला रही है। अपने निरावरण शुद्ध स्पर्श के जल से वे मेरे अणु-अणु को अभिसिंचित किये दे रही हैं।... अपनी अस्मिता और इयत्ता में रहना इस क्षण मेरे लिए सम्भव नहीं हो रहा है। मेरी समस्त वासना और चेतना उनके मातृत्व और रमणीत्य के संग तद्रूप तदाकार होकर उनकी अनुत्तर सौन्दर्य मूर्ति के साथ लिंगतीत आलिंगित हो गयी है ।..."
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"ओ मेरी आत्म-सुन्दरी माँ अपने अद्वैत के परिरम्भण से मुझे कुछ क्षण मुक्त करके द्वैत की जीवन लीला में लौटा लाओ। ताकि तुम्हारा कवि आर्यावर्त के कोटि-कोटि भावुकों को, तुम्हारे सौन्दर्य के काव्य-गान से भावित कर सके |...
"सोलहों स्वर्गों के कमलवनों का सुवर्णिम परिमल पराग तुम्हारी देह में रूपायमान हुआ है, माँ ! तमाम अप्सराओं और देवांगनाओं की सारभूत रूपमाधुरी तुम्हारे अंगरंगों से झर रही है। तुम कल्पलताओं-सी लचीली, तन्वंगी, मनचाही मनभायी, सर्वकामपूरन सुम्दरी हो, माँ तुम्हारी देह के परम वासना - कुल परमाणु, नारकीय और मानव प्राणियों की प्रतिपत्ल की यातना, वेदना, करुणा से भी एकबारगी ही आलोड़ित, अनुकम्पित और भींजे हुए हैं, माँ तुम्हारी परमकाम प्रीति के अमृत- रस में मृत्यु तक शरणागत हो गयी है । ...
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"अतल पाताल के सहस्रों बासुकी नागों के समान तुम्हारे तमाल-नील कुन्तलों में मोहनीय कर्म अपनी अवधि पर पहुँच गया है। पराजित हो गया है। उसके मोह-बन्धों की सारी ग्रन्थियाँ तुम्हारे केशों की मुक्त लहरों खुल पड़ी हैं। भव की चिरन्तन मोहरात्रि यहाँ अनजाने ही स्वयं अपनी सीमा को अतिक्रान्त कर गयी है।
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156 एक और नीलांजना