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विकार, मिध्यात्य वस्तु में नहीं, भावक में हैं, अवबंधक में हैं भोक्ता में हैं। वे उसकी खण्डित, एकान्तिक चेतना की दरारें हैं, दीवारें हैं, अधियारे हैं।... उसमें रमणी-पी मरुदेवी का, उनके सवांगीण सोन्दर्य का, उनकी नग्नता का और मेरी कविता का कोई दोष नहीं...!"
"आर्य जिनसेन, आपकी अपनी आत्मा की और अपनी कविता की निविकारता पर ऐसा अटल विश्वास है, तो उसे लोक के समक्ष प्रमाणित करना होगा !"
"जिनसेन विकार और निर्विकार से परे, स्वयमाकार हैं, निरहंकार है । सो वह सर्वाकार है। लोक अपने कवि से क्या चाहता है ? उसके समाधान को जिनसेन चाहे जब प्रस्तुत है ....
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"भारतवर्ष के कविकुल- चक्रवर्ती जिनसेन को सम्राट् अमोघवर्ष के खुले राज दरबार में, दक्षिणावर्त और आयांवर्त की समस्त प्रजा के समक्ष, भगवती मरुदेवी के नख-शिख वर्णन का काव्य-पाठ करके, अपने दिगम्बरत्व और कवित्व की निर्विकारता सिद्ध करनी होगी।...."
" स्वतः सिद्ध को सिद्ध करना, अहंकार की जल्पना ही होगी, आयुष्मान् ! मेरा रोम-रोम भगवती मरुदेवी की सौन्दर्य प्रभा से प्रतिक्षण आप्लावित है आप और आपके प्रजाजन चाहें, तो उस आप्लावन को निश्चय ही स्वयं कवि में तरंगित देश सकेंगे। आनन्द, सौन्दर्य और रस के उस अक्षय खोत में आप सब मेरे साथ निमग्न होना चाहते हैं, तो मैं आपका चिर कृतज्ञ हूँगा । सरस्वती वल्लभ जिनसेन की कविता उस तरह सर्वकाल के लिए सिद्ध और सार्थक हो जाएगी। वह मानव-कुल के रक्त में भाव और ज्ञान की ऊर्ध्ववाहिनी धारा बनकर, सदा के लिए संचरित हो जाएगी...1" “शाश्वतों में सदा जयवन्त हों, भगवान् जिनसेन ! जिनेश्वरी रसवन्ती के चूड़ामणि कवि जिनसेन ने अमोघवर्ष के वचन की लाज रख ली। मैं धन्य हो गया श्री गुरुनाथ !"
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कहकर सम्राट् अमोघवर्ष सम्यक्त्व मूर्ति जिनसेन के चरणों में भूमिसात् हो गये ।
त्रिभुवन मोहिनी माँ 153
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