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कामुकता देखना, अपने ही हृदय के कालुष्य और कामुकता का परिचय देना हैं। आप तो जानते हैं, महासारस्वत, कि पार्श्वभ्युदयकार जिनसेन को कामुक नहीं कहा जा सकता, काम साम्राज्य का विजेता कवि-सम्राट् ही कहा जाता है। यह भी आपसे खुल नहीं, गडिलेश्वर कि कविदास कामाध्यात्म के यत्प नास्ति महाकवि थे। मेघदूत में उनका कामाध्यात्मिक रस-दर्शन चरमोत्कर्ष पर पहुँचा है। उसी मेवदूत के मन्दाक्रान्ताओं को शब्दशः स्वीकार, ठीक उन्हीं की पाद पूर्ति के रूप में महाकवि जिनसेन
पायजेसी अपूर्व मौलिक काव्य-कृति को रचना की है। कालिदास के उद्दाम और ऊर्ध्वोन्मुख शृंगार छन्दों को ज्यों-का-त्यों अंगीकार करके जिनसेन ने पार्श्वभ्युदय में, उस शृंगार को भगवान् पार्श्वनाथ की परम रसेश्वरी तपो - लक्ष्मी के योगानन्द में रूपान्तरित कर दिया है। उन्हीं पाश्वभ्युदयकार जिनसेन ने महापुराण में, रसानन्द को अपने काव्य के अमोघ रसायन से ब्रह्मानन्द की भूमिका में उत्क्रान्त कर दिया है। ऐसे रस-सिद्ध और सिद्ध-सारस्वत कवि की कविता का अन्यधा प्रभाव जन- हृदय पर पड़ ही नहीं सकता। नहीं तो उनकी सरस्वती असिद्ध और मिथ्या हो
जाए ।"
"सम्राट् जानते हैं कि कालिदास की कविता भी लोक में कलकिल हुए बिना न रह सकी | कुमारसम्भवम् में भगवती उमा का नख - शिख वर्णन करते हुए, उनका रस - ब्रह्म आखिर मर्यादा का अतिक्रमण कर गया, स्खलित हो गया। और यह एक लोक विख्यात तथ्य है कि जगदम्बा के श्रृंगार-वर्णन में अधःपतन की सीमा तक जाने के कारण ही कालिदास जैसा रसराज राजेश्वर कवि अन्ततः गलित कुष्ठ-जैसे घृणित रोग का ग्रास हो
गया..."
"सावधान महापण्डित ! मुझे आशा नहीं थी कि आप जैसा सर्वशास्त्र पारंगत विद्वान्, इस स्तर पर उतरकर इस भाषा में भी बोल सकता है। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि आप कालिदास जैसे कामेश्वर कवि को इन मिथ्या और रूढ़ किंवदन्तियों से मापने में गौरव अनुभव कर सकते
त्रिभुवन मोहिनी माँ 147