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स्मरण हो आया । सो बड़ी कठिनाई से यात्रा करते, गिरते-पड़ते वे किसी तरह श्रीगुरु के चरणों में आ पहुँचे । रुदन-कातर होकर उन्होंने श्रीचरणों में अपनी व्यथा का निवेदन किया। उत्तर में सुनाई पड़ा : ___"अरे क्यों भयभीत होता है, वत्स ! यह वेदना असाधारण है। यह तुझे कृत-कृत्य करने आयी है। आत्मा को कोई उच्चतर भूमिका इसमें से खुलेगी। आप्त-स्वरूप के साक्षात्कार का महाद्वार बनेगी तेरी यह वेदना । तुझे भस्मक व्याधि हुई है। समस्त ब्रह्माण्ड का आहरण करने की महाक्षुधा जागी है तेरे मूलाधार में । ब्रह्माण्ड को आत्मसात् करके ही यह चैन लेगी। अदम्य है यह महाशक्ति कुण्डलिनी ! राह-राह भटकाकर यह तुझे विचित्र अनुभवों से सम्पन्न करेगी। यधास्थान पहुँचाकर, एक दिन यह तुझे दिव्य नैवेध से तृप्त करेगी। उस दिन यह क्षुधा-तृषा से परे, तेरे भीतर, तेरे ही स्वाधीन आप्तकाम अमृत का स्रोत मुक्त कर देगी। अरे जा रे जा, निर्भय होकर, निर्द्वन्द विचरण कर...!"
__ "भगवन्, इस बुभुक्षा को लेकर, श्रमण-चर्या कैसे सम्भव है : अपने महावत से व्युत होने से तो मृत्यु भली । नहीं...नहीं भन्ते, दिगम्बर मुद्रा,
और यह सर्वनासी बुभुक्षा साथ नहीं चल सकते। मुझे सल्लेखना धारण कर प्राण-त्याग की अनुमति प्रदान करें, गुरुदेव....!" ___"लि:-छिः, ऐसी भयार्त वाणी दिगम्बर सिंह को शोभा नहीं देती। मैंने तुझे समन्तभद्र कहकर सम्बोधित किया है, सो क्या भीरु आत्मघात करने के लिए ? जगत् के सर्व मंगलों का पुंजीभूत अभ्युदय है तू, समन्तभद्र !
"तू नहीं जानता समन्तभद्र, तेरा जीवन वर्तमान लोक की महामूल्यवान् सम्पदा है। तेरे मुख से जिनेश्वरों की कैवल्य सरस्वती अपूर्व स्तुतिगानों में उच्चरित होगी। अपने काल में तू विश्व-तत्त्व और विश्वधर्म का अप्रतिम द्रष्टा और प्रवक्ता होगा। इस कलिकाल में तू सर्वज्ञ तीर्थकरों का एक अज्ञेय अनुशास्ता होकर विचरण करेगा.... ___और सुन रे आयुष्मान्, वादी-प्रतिवादियों के अहंकारी एकान्तवाद से, लोक की ज्ञानदृष्टि आज घोर अन्धकार से आच्छन्न हो गयी है। मनुष्य
124 : एक और नीलांजना