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वन- फूलों से सज्जित परिणय- वेदी में अपनी गलित उँगलियों से सौन्दर्य की सम्राज्ञी मैना का पाणिग्रहण करके, महाराज श्रीपाल भीतर-ही-भीतर कृतज्ञता के आँसुओं से गल आये उनकी मुकुटमण्डित, राजवेश से सज्जित देह के प्रत्येक अवयव से बहते रक्त- पीप, उनका सुवर्ण- खचित उत्तरीय भिगो रहे थे। नाना सुगन्धित अंगरागों को भेदकर भी उनकी देह-दुर्गन्ध बाहर फूटी पड़ रही थी।
झुकी आँखों, श्रीपाल को जयमाला पहनाकर, मैना उनके चरणों में दुलक गयी। बरसों के कष्टभोग से पाषाण हो गये श्रीपाल नम्रीभूत हो आरे पैना को थामने को आकुल उनकी गलित ताँह हवा में मूर्तियत् धमी रह गयी।...
...अरण्य-शिखर पर प्रतिपदा का पाण्डुर, क्षयी चन्द्रमा, चलते-चलते ठिठक गया। उसका क्षयन क्षण-भर को थम गया ।
.... गुहा द्वार के आम्र-पल्लव- तोरण तले, आर्य श्रीपाल और मैंनासुन्दरी जाने कितनी देर आपने सामने निस्तब्ध खड़े रह गये। फिर श्रीपाल ने ही उस नीरव को भंग किया :
"भगवती...!"
परम अनुकम्पा से उज्ज्वल दो बड़े-बड़े आयत्त नयन उठकर श्रीपाल के विद्रूप चेहरे पर व्याप गये ।
"मेरे देवता, मेरे कामदेव...!"
"कामदेव नहीं, कोढ़ी, कल्याणी...!"
"मेरी अभीप्सा की भंग न करो, मेरे देवता। मेरे सपने को तोड़ो
नहीं ।"
"क्या मैं अपने को नहीं देख रहा, मैना ?... तुम्हें दिखाने योग्य चेहरा मेरे पास नहीं !"
"यह तुम्हारा असली चेहरा नहीं, नाय ।... नहीं, तुम अपने को नहीं देख पा रहे। मेरी आँखों से एक बार अपने को देखो,
प्रभु !"
रूपान्तर की दाभा 111