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________________ राग बिहागड़ो अब हम नेमिजीकी शरन॥ टेक। और ठौर न मन लगत है, छांडि प्रभुके चरन।।अब.।। सकल भवि-अघ-दहन-वारिद, विरद तारन तरन। इंद चंद फनिंद ध्या, पाय सुख दुःख-हरन ।। अब.॥१॥ भरम-तम-हर-तरनि-दीपति, करमगन खयकरन । गनधरादि सुरादि जाके, गुन सकत नहिं वरन । अब, ॥२॥ जा समान त्रिलोकमें हम, सुन्यौ और न करन। दास 'धानत' दयानिधि प्रभु, क्यों तकेंगे यरन ।। अब.॥३॥ हे आत्मन् ! अब हम भगवान नेमिनाथ की शरण में हैं। प्रभु की शरण छोड़कर अन्यत्र हमारा मन नहीं लगता है। हे भगवन् ! भवसागर से स्वयं तिरना और अन्य जनों को पार लगाना आपकी विशेषता/विरद है। आप समस्त भव्य जीवों को दग्ध करनेवाली पापरूपी अग्नि का शमन करने के लिए जल-भरे बादल के समान है। इन्द्र, चन्द्र, फणीन्द्र सभी आपका पवित्र स्तवन कर स्मरण करते हैं, जिससे वे सुख प्राप्त करते हैं, उनके दुःख दूर हो जाते हैं। आप भ्रमरूपी अंधकार को हरनेवाले हैं, स्वयं दीप्त हैं, प्रकाशवान हैं । आप भवसागर से पार उतारने के लिए नौका हैं, सब कर्मों का क्षय करनेवाले हैं। गणधर, देवता आदि भी आपके गुणों का वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं। हे नाथ! आपकी जैसी महिमावाला, गुणोंवाला अन्य कोई है ऐसा हमने कानों से नहीं सुना। यानतराय कहते हैं कि प्रभु! आप तो दयानिधि हैं, आप अपनी दयालु होने की देव/आदत क्यों छोड़ेंगे? घानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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