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भव्यजन उस आत्मा के गुणगान के रंग में लीन हो जाते हैं, रंग जाते हैं और प्रवीण / कुशल/ज्ञानीजन निश्चय से उसकी नवधा भक्ति में लीन हो जाते हैं ।
वे अन्तर से निःसृत अनहद ध्वनि में उत्साहित होकर / निमग्न होकर परमसमाधि में लीन हो जाते हैं।
फिर वे बाह्य जगत में करुणा से ओत-प्रोत होकर आत्मा के स्वभाव को प्रकाशित करते हैं, प्रसारित करते हैं ( समझाते हैं) और अन्त:करण में अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को / परमात्मस्वरूप को ध्याते हैं ।
ऐसा चिन्तन पूज्य-पूजक भाव का मिटा देता है। द्यानतरायजी कहते हैं कि आत्मा के गुणों की वन्दना से आत्मा परमात्मा' हो जाता है।
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द्यानत भजन सौरभ
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