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________________ ( ३०७ ) खेलौंगी होरी, आये चेतनराय ॥ टेक ॥ लगाय ॥ खेलौं ।॥ २ ॥ दरसन बसन ज्ञान रंग भीने, चरन गुलाल आनँद अतर सुनव पिचकारी, अनहद बीन बजाय ॥ रीझौं आप रिझावौं पियको, प्रीतम लौं गुन गाय ॥ खेलौं ॥ ३ ॥ 'द्यानत' सुमति सुखी लखि सुखिया, सखी भई बहु भाय ॥ खेलौं. ॥ ४ ॥ खेलौं ॥ १ ॥ सुमति कहती हैं कि चेतन राजा अपने घर में आए हैं अर्थात् आत्मा की स्वभाव की ओर रुचि हुई हैं। अब आत्मा आत्मा में ही, अपने चिंतन-मनन में मग्न हैं। अब मैं उससे होली खेलूँगी अर्थात् आत्मा आत्मा में मग्न होकर अपने चिदानन्द का अनुभव करेगी। दर्शनरूपी वस्त्र को ज्ञानरूपी सुधित रंग से रंजी और रि गुलाल लगाऊँगी। आनन्दरूपी इत्र व विविध सम्यक दृष्टिकोणों सहित ज्ञानरूपी पिचकारी से अब मैं अपनी ही चितस्वरूपी बीन की अनहद की गूंज में, भावों में निमग्न होऊँगी | स्वयं उसकी ओर आकर्षित होकर प्रियतम अर्थात् चेतन को अपनी ओर आकर्षित करूंगी। उस ही की भक्ति के गीत गाऊँगी। द्यानतराय कहते हैं कि सुमति को सुखी देखकर उसकी सखियों को अत्यन्त मनभावन लग रहा है अर्थात् मन को भा रहा है, रुचिकर लग रहा है । चरन = चारित्र | द्यानत भजन सौरभ ३५५
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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